Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१० १५९ के विशेषार्थका है। इसमें कर्मको निमित्तताको स्वीकार कर व्यवहारकारूपसे उसका उल्लेख करके मन, वाणी और श्वासोच्छ्वासके प्रति जीवका भी व्यवहारकारूपसे उल्लेख किया गया है।"
इसपर मेर कना नह है कि पूर्व पक्षाने पं. चन्द्रजीके उक्त विदोषार्थका उद्धरण अन्य आगम प्रमाणोंके उद्धरणों के साथ इस दृष्टि से किया है कि उससे द्रव्यकर्मके उदयमै संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारणताका स्पष्ट समर्थन होता है। परन्तु पं० फूलचन्द्रजी सहित सम्पूर्ण उत्तरपक्षने अन्य सभी उद्धरणोंके साथ पंचाध्यायीके उद्धरणका भी मही आशय व्यक्त किया है कि इस उद्धरणसे भी संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति द्रव्यकर्मक उदयमें निश्चय कर्तत्व सिद्धन होकर व्यवहार कर्तत्व ही सिद्ध होता है। किन्तु उत्तरपक्षका यह कथन या तो वाक छल है या अपनी गलतीको स्वीकार न कर उसका समर्थन करने वाला है। वास्तवमें उक्त उद्धरणों को पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत करनेका उद्देश्य प्रत्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतूमतिभ्रमणके प्रति सहायक होनेसे कार्यकारी निमित्तकारण बतलाना या उसका समर्थन करना है। अतः उत्तरपक्षको या तो द्रव्यकर्मके उदयको उक्त कार्य के प्रति महायक होने रूपमें कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करना होगा या उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर निमित्तकारण माननेकी अपनी मान्यताके समर्थन में अन्य आगमप्रमाणोंकी खोज करना आवश्यक होगी। यतः उपर्युक्त आमम प्रमाणोंसे द्रश्यक्रमके उदयको उक्त कार्यके प्रति सहायक होने रूपमें कार्यकारी निमित्तकारणताक्री ही सिद्धि होती है तथा पूर्वमें भी अन्य प्रमाणोंक आधारपर उसकी उक्त कार्य के प्रति कार्यकारी निमित्तकारणताकी सिद्धि की जा चुकी है । अतः उत्तरपक्षकी स्थिति 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' न्यायका अनुसरण करने के अतिरिक्त नहीं है।
उत्तरपक्षने इसी सन्दर्भ में त० ० १०४४ पर यह भी लिखा है कि "अपरपक्षने इन प्रमाणोंमें एक प्रमाण 'कश्य वि बलिओ जीवो' यह वचन भी उपस्थित किया है और उसको उत्थानिकामें लिखा है कि जब जीव बलवान होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है" इसपर विचार करते हुए उत्तरपक्ष ने आगे लिखा है-"यहाँ यह विचार करना है कि ऐसी अवस्थामें जीव स्वयं अपना कल्याण करता है या बाए सामग्री द्वारा कल्याण होता है।" यदि बाद्य सामग्री द्वारा उसका कल्याण होता है यह माना जाये तो "जीव अपना कल्याण कर सकता है" ऐसा लिखना निरर्थक है और यदि वह स्वयं अपना कल्याण कर लेता है यह माना जाये तो प्रत्येक कार्य अन्यके द्वारा होता है यह लिखना निरर्थक हो जाता है। प्रकृतमें इन दो विकल्पोंके सिवाय तीसरा विकल्प तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि उसके स्वीकार करनेपर बाश्व सामग्री अकिंचित्कर मानना पड़ती है। अतएव "कत्थवि नलिओ जीवो" इत्यादि वचनको व्यवहारमयका कथन ही मानना चाहिए जो कर्मकी बलवत्तामें जीवकी पुरुषार्थहीनताकी और कर्मकी हीनतामें जीवकी उत्कृष्ट पुरुषार्थताको सूचित करता है। स्पष्ट है कि उक्त कथनसे यह तात्पर्य समझनी चाहिए कि जब जीव पुरुषार्थहीन होता है तब स्वयं अपने कारण बह अपना कल्याण करने में असमर्थ रहता है और जब उत्कृष्ट पुरुषार्थी होकर आत्मोन्मुख होता है तब वह अपना कल्याण कर लेता है।"
यह आलोचनात्मक कथन उत्तरपक्षने पूर्व पक्ष के तब० पृ. १३ में निर्दिष्ट इस कथनको लक्ष्यम रखकर किया है कि "कोकी सदा एक-सी दशा नहीं रहती है। कभी कर्म बलवान होता है और अभी जीव बलवान् होता है । जब जीव मलवान् होता है तो वह अपना कल्याण कर सकता है।"