Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 278
________________ शंका-समाधान १ की समीक्षा ५.१ coats विक्षत पर्यायोंमें निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयसे हैं, निश्वयसे नहीं "सर्वत्र स्थान-स्थान पर इसी पर जोर दिया गया है । व्यवहार नयके पूर्व मात्र शब्द लगाकर उसका अर्थ उपचार करके यह भी दर्शाया गया है कि व्यवहारसे जो कथन है वह वस्तुतः वास्तविक नहीं हैं" । उत्तरपक्ष ने पूर्वपक्ष के इस कथनपर विचार करते हुए ० ० पृ० ४९ पर "प्रसंगवश प्रकृतोपयोगी खुलासा" शीर्षक अन्तर्गत लिखा है - "इसी प्रसंग में अपरपक्षने नयोंकी चर्चा करते हुए व्यवहारनयको असद्भूत माननेमे अस्वीकार किया है। उस पक्षका ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि जितने प्रकार व्यवहारनव आगममें बतलाये गये हैं वे सब सद्भूत ही हैं। यह प्रश्न अनेक प्रसंगोंमें अनेक प्रश्नोंम उठाया गया है । यदि अपरपत्र आगमपर दृष्टिपात करता तो उसे स्वयं ज्ञात हो जाता कि आगम में व्यवहारनय के जो चार भेद किये हैं उनमे से दो सद्भूत व्यवहारयके भेद हैं और दो असद्भूत व्यवहारनयके भेद हैं ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती हूँ जिस प्रकार उत्तरपक्ष आगमके आवारपर व्यवहारनपके सद्भूत और असद्भूत दो भेद मानकर प्रत्येक अनुपनरत और उपकारत दोन्दी मंद स्वीकार करता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी स्वीकार करता है. अतः उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनका यह आशय निकालना मिथ्या है कि पूर्वपक्ष व्यवहारतयको अद्भूत मानने से अस्वीकार करता है । पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनफा इतना ही आशय है कि व्यवहारनय के सद्भूत और अद्भूत दो भेद तथा इनमे से प्रत्येक के अनुपचारित और उपचरितके रूपमें दो-दो भेद होकर भी अपने-अपने ढंगये वास्तविक है जिसका अभिप्राय मात्र इतना ही है कि इनमें से कोई भी भेद आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित नहीं है। पूर्व में उद्धृत माचार्य विद्यानंदके तत्वार्थश्लोकवातिक पृ० १५१ के कथनमें उक्त सभी प्रकार के व्यवहारनयोंको पारमार्थिक कहकर उनकी कल्पनारोपितताका निषेध किया गया है।' इस तरह दोनों पक्षों मध्य इस बातका मतभेद नहीं है कि व्यवहारनयके सद्भूत और असद्भूत दो भेद है; ऐसा नहीं है कि उत्तरपक्ष तो व्यवहारनयको सद्भूत और असद्भूत दोनों प्रकारका मानता है, परन्तु पूर्वपक्ष उसे केवल सद्भूत हो मानता है। दोनों पक्षोंमें जो मतभेद है वह इतना ही है कि जहां उत्तरपक्ष दो द्रव्योंमें विद्यमान होनेके कारण असद्भूत व्यवहारनयका विषयभूत तिमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निमित्तके कार्यरूप परिणत न होने और कार्योत्पत्ति में सहायक भी न होनेसे निर्णीत उसकी सर्वथा ऑकचित्करता के आधारपर उसे कल्पनारोपित मानता है वहां पूर्वपक्ष वही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निमित्तकं कार्यरूप परिणत न होनेसे निर्णीत अकिचित्करता और कार्योत्पत्ति में सहायक होने से निर्णीत कार्यकारिताके आधारपर कथंचित् वास्तविक स्वीकार करता है, सर्वथा कल्पनारोपित नहीं । तात्पर्य यह है कि व्यवहारतय चाहे सद्भूत हो, असद्भूत हो, अनुपचरित हो या उपचरित हो, सभी रूपोंमें अपने-अपने ढंग से वास्तविक ही है अर्थात् कोई भी नय आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं है। यहां परमार्थ, वास्तविक या सद्भूत तीनों शब्दों यही आशय ग्रहण करना है कि उक्त चारों प्रकारके व्यवहास्तयों में से कोई भी नथ कल्पनारोपित नहीं हैं और न उनका विषयभूत पदार्थ भी कल्पनारोपित है। इसी बात की पुष्टि पूर्वपक्ष के निम्नलिखित कथन करते हैं— १. तदेवं व्यवहारनयरामाश्रय कार्यकारणभावां विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः सर्वच्चाप्यनवद्यत्वात् ।

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