Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाषान १ की समीक्षा
९७ सामग्रीके सहयोगके आधारपर होती हुई मानता है। यहाँ "आवश्यकतानुसार" कहने में हेतु यह है कि आगममें पर्यायसत्को स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। इनमें स्वपरप्रत्यय परिणमन ऐसा है जो बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त हए बिना नहीं उत्पन्न होता । पत: उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्ति के विषयमें इस बातको मानने के लिए तैयार नहीं है कि वह बाह्म सामग्रीका सहयोग प्राप्त हुए बिना उत्पन्न नहीं होता, अतः पूर्वपक्षका उत्तरपक्ष के साथ इसमें मतभेद है। यद्यपि उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्यम परिणमनकी उत्पत्ति के अवसरपर वाह्य सामग्रीको उपस्थितिको स्वीकार करता है परन्तु उसका कहना है कि उस बाह्य सामग्रीके सहयोगको अपेक्षा उस परिणमनकी उत्पत्तिमें मण मात्र भी नहीं रहा करती है, जो आगम-विरुद्ध है क्योंकि आगममें स्वपरप्रत्यय परिणमनको उत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीके सहयोगकी आवश्यकताको स्वीकार किया गया है।
(३) उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्यमें पूर्वपक्षके स्वपरप्रत्यय परिणमनके विषय में परकी सहायतासे उत्पन्न होने सम्बन्धी कथनके इस आशयको विकृतरूपसे प्रस्तुत करनेकी चेष्टा की है कि "पूर्वपक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनको परके द्वारा उत्पन्न हुआ मानता है" सो उसकी यह चेष्टा अनुचित है, क्योंकि पूर्वपक्ष स्वपरप्रत्मय परिणमनका परकी सहायतासे उत्पन्न होना स्वीकार करता है, परके द्वारा उत्पन्न होना स्वीकार नहीं करता । इसका कारण यह है कि एक वस्तु अपना अस्तित्व स्वतन्त्र रखते हए दूसरी वस्तुके कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक तो हो सकती है, परन्तु उसके कार्यको वह त्रिकालमें नहीं कर सकती, क्योंकि यदि वह वस्तु दूसरी वस्तुके कार्यको करने लग जाये तो उसे अपना अस्तित्व उस दूसरी वस्तुमें संक्रमित कर देना होगा, जो असम्भव है ।
(४) यद्यपि दोनों पक्षोंने स्वपरप्रत्यय परिणमन की उत्पत्तिके प्रसंगमें उपादान और बाह्य सामग्रीको स्थान दिया है, परन्तु दोनों के विचारों में निम्नलिखित मसक्य और मतभेद पाया
(क) दोनों पक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्ति में उपादानको निश्चपकारण, यथार्थकारण व मुख्यकर्ता मानते हुए उसे निश्चयनयका विषय स्वीकार करते हैं व बाह्य सामग्रीको व्यवहारकारण, यथार्थकारण और उपचरितकर्ता मानते हुए उसे व्यवहारनयका विषय मानते हैं। परन्तु दोनों पक्ष दाहा सामग्रीको व्यवहारकारणता, अपथार्थकारणता और उपचरितकर्तृत्वके स्वरूपका निर्धारण भिन्न-भिन्न प्रकारसे करते हैं। पूर्वपक्ष जहाँ स्वपरप्रत्यय परिणमनकी उत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीको व्यवहारकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरिकर्तृत्वके स्वरूपका निर्धारण उसमें उसके सहयोगी होते रूपसे कार्यकारिताके आधारपर करता है वहाँ सत्तरपक्ष उसमें उसके सहयोगी न होने रूपमें अकिंचित्करताके आधारपर करता है। इनमें पूर्वपक्षकी मान्यता युक्ति एवं आगम राम्मत है और उत्तरपक्षकी मान्यता उससे विपरीत है। इसे पहले विशदतमा स्पष्ट किया जा चुका है।
(ख) दोनों ही पक्ष निश्चयनयके द्रव्याथिक निश्चयनय और पर्यायाथिक निश्चयनय ये दो भेद स्वीकार करते हैं व व्यवहारनयके सद्भुत और असद्भत ये दो भेद मानकर दोनोंके अनुपचरित और उप
. १. तदसामर्थ्यमखण्यदकिंचित्कर कि सहकारिकारणं स्यात् ।-अष्टशती, अष्टसहस्री पृ० १०५
( नि सा प्रकाशन) स०-१३
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