Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रदेश भेद है।
"यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक अखण्ड सत्को भेद विवक्षामें तीन भागों में विभक्त किया गया है - द्रवसत् गुणसत् और पर्यायसत् पक्ष द्रव्य और गुमशक स्वरूपको तो पत शिद्ध मानने के लिए तैयार है किन्तु पर्वायसत् के विषय में उसका कहना है कि वह परकी सहायता से अर्थात् परके द्वारा उत्पन्न होता है। उपादान स्व हैं और अभेद विवक्षामें जो उपादान है वहीं उपादेय है इसलिए वह अपने अपने में अपने द्वारा आप कर्त्ता होकर कर्मरूपसे उत्पन्न हुआ यह कथन यथार्थ बन जाता है । किन्तु जिस बाह्य सामग्रीमें निमित्त व्यवहार किया जाता है वह (स्वयं परके कार्थका स्वरूपसे निमित्तकारण नहीं है यह बात यहाँ ध्यानमें रखना चाहिए) पर है, अतः उसमें यह कार्य हुआ इसे तो यथार्थं न माना जाये और उसके द्वारा आप कर्ता होकर इस कार्यको उसने उत्पन्न किया इसे यथार्थ कैसे माना जा सकता है अर्थात् त्रिकालमें यथार्थ नहीं माना जा सकता है, क्योंकि दोनों में सर्वथा सत्ता भैव है, कर्त्ता आदिका सर्वथा भेद तो है ही । परके द्वारा कार्य हुआ या परकी सहायता से कार्य हुआ इसे आगम प्रमाणसे यदि हम अद्भूत व्यवहार कथन या उपचरित कथन बतलाते हैं तो अपरपक्ष उसे निरर्थक या निरुपयोगी लिखने में ही अपनी चरितार्थता समझता है इसका हमें आश्चर्य है । जहाँ उपादान और उपादेय में भेदविवक्षा करके उनसे उपादेवको उत्पति हुई यह नाथन ही व्यवहार कथन ठहरता है यहाँ परके द्वारा उससे सर्वथा भिन्न परके कार्यको उत्पत्ति होती है इसे असद्भूत व्यवहार कथन न मानकर सद्भूत व्यवहार या निश्चय कथन कैसे माना जा सकता है ? इसका स्वमत के समर्थनका पक्ष छोड़कर अपरपक्ष ही ही विचार करे। क्या यह अपरपक्ष आगमसे बतला सकता है कि एक द्रव्य कर्ता आदि कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें वास्तव में पाये जाते हैं? यदि नहीं तो वह पक्ष "कुम्भकार घटका कर्ता है" इस कथनको असद्भूत व्यवहारनय (उपचरितोपचारनय) का कथन मानने में क्यों हिचकिचाता है ? पहले तो उसे इस कथनको निःसंकोच रूपमें स्वीकार कर लेना चाहिए और फिर इसके वाद उसकी सार्थकता या उपयोगिता क्या है इसपर विचार करना चाहिए। हमें आशा है कि यदि वह इस पद्धति से विचार करेगा तो उसे इस कथनकी सार्थकता और उपयोगिता भी समझ में आ जावेगी। यह कथन इष्टार्थ अर्थात् निश्चयका ज्ञान कराने में समर्थ है इससे इसकी सार्थकता या उपयोगिता सिद्ध होती है, इससे नहीं कि वह स्वयं अपने में यथार्थ करन है | इसे यथार्थ कथन मानना अन्य बात है और सार्थक अर्थात् उपयोगी मानना अन्य बात है । यह कथन उपयोगी तो है पर यथार्थ नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।" आगे इसको समीक्षा की जाती है
दोनों पक्षोंके इन उपर्युक्त वक्तव्योंपर ध्यान देनेपर पाठकों को यह बात सरलतासे समझमें आ सकती है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें पूर्वपक्ष के वक्तव्यकं विषयमें जो कुछ लिखा है उसे लिखते समय उसने या तो पूर्वपक्ष के वक्तव्य के आशय को समझने की चेष्टा नहीं की है अथवा जान-बूझकर तत्त्वजिज्ञासुओं को भ्रम में डालने का प्रयत्न किया है। यहाँ वास्तविकताको स्पष्ट करनेका प्रयास किया जाता है ।
(१) पूर्वपक्ष सत् और गुणसत्को स्वतः सिद्ध ही मानता है, जैसा कि उत्तरपक्षने लिखा है और स्वतः सिद्धा अर्थ है कि द्रभ्यसत् और गुणसत् दोनों ही अनादि निधन है ।
(२) उत्तरपक्ष पर्यायसत्को भी स्वतः सिद्ध मानता है और वह यहाँ स्वतः सिद्धका अर्थ " अपने से, अपने में, अपने द्वारा आप कर्त्ता होकर कार्यरूसे उत्पन्न हुआ" करता है। इसे भी स्वीकार करनेमें पूर्वपक्षकी कोई आपत्ति नही है । केवल उसका कहना यह है कि जहां उत्तरपक्ष पर्यायकी उत्पत्तिको बाह्य सामग्री के सहयोग बिना अपने आप होती हुई मानता है वह पूर्वपक्ष उस उत्पत्तिको आवश्यकतानुसार बाह्य