Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 286
________________ २२ झांका-समाधान १ की समीक्षा का विमा पानो काई विवाद नहीं है। इसी प्रकार कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुको पर्यायोंमें अभेदविकासे उपादान मारणताको स्वीकार करने और उन्हें पर्यायाथिक निश्चयनयका विषय मानने में तथा उन पर्यायोंमें भेदविवक्षासे सद्भुतव्यवहारकारणताको स्वीकार करने और उन्हें उपर्युक्त प्रकार अनुपचरित और उपचरित सद्भुत व्यवहारनपका विषय मानने में भी कोई विवाद नहीं है। इसी तरह दोनों पक्षोंके मध्य बाह्य वस्तुमें निमित्त कारणताको उपर्युक्त प्रकार यथायोग्य अनुपचरित और उपचरित कारणताके रूपमें स्वीकार करने और उन्हें यथायोग्य अनुपचारित और उपरित असद्भूत व्यवहारनवका विषय स्वीकार करने में भी कोई विवाद नहीं उठता। केवल विवाद इस बात है कि जहाँ पूर्वपक्ष बाह्य सामग्रीका कार्योत्पत्तिमें राहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानकर उसी कार्वकारिताके आधारपर स्वीकृत निमित्तकारणताको असद्भुत व्यवहारमयका विषय मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस बाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्तिमें सहायक न होने रूपमे अफिचिस्कर निमित्तकारण मानकर इसी अकिचित्करताके आधारपर स्वीकृत निमित्त कारणताको असदभत धवनारनयका विषय मानता है। इस प्रकार जहाँ पूर्वपक्षकी मान्यतामें असद्भूत व्यवहारनयका विषय उपर्युक्त प्रकारको कार्यकारिताके आधारपर आगमके अनुसार परमार्थ, वास्तविक या सत्य सिद्ध होता है वहाँ उत्तरपक्षकी मान्यतामें असदभत व्यवहारमयका विषय उपयुक्त प्रकारको अकिंचित्करताके आधारपर आगमसे विरुद्ध आकाशाकुरामकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है। यह सब पूर्व में भी कहा जा चुका है। तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य 'कुम्भकार घटका कर्सा है" इस कथनको असद्भुत व्यवहारमयका कथन मानने में विवाद नहीं है । विवाद दोनों पक्षोंये. मध्य केवल यह है कि "कुम्भकार घटका कर्ता है' यह कथन असद्भूत व्यवहारनयका विषय होकर उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार जहाँ अपने ढंगसे आकाशाकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है वहाँ पूर्वपक्षको मान्यताके अनुसार वह अपने हंगसे परमार्थ, वास्तविमा और सत्य सिद्ध होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तवयमें पूर्वपक्षपर जो आरोप लगाये हैं वे युक्त नहीं है। उत्तरपक्षने इसी वक्तध्यमें जो यह बतलाया है कि कुम्भकार यद्यपि घटका कर्ता नहीं होता, तथापि उसे घटका का कहनेसे इष्टार्थ अर्थात् निश्चयार्थका ज्ञान हो जाया करता है। इसके सम्बन्ध में मह कहना चाहता हूँ कि इस कथनसे इष्टार्थका बोन किस आधारपर होता है ? इसपर उत्तरपक्षने विचार नहीं किया, क्योंकि इस कथनसे इष्टार्थका बोध, तभी संभव है जब कुम्भकारको घटोत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण माना जाये, अन्यथा नहीं। अतः इस प्रकार घटोत्पत्तिमें घटरूप परिणत होने रूपसे निश्चयकारणभूत मिट्टी परमार्थ कारण है उसी प्रकार वहाँपर उस मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे असद्भुत व्यवहारकारणभूत कुम्भकार भी परमार्थ कारण है अर्थात् आकाशकुसुमकी तरह यह बहापर कल्पनारोपित या कथानमात्र कारण नहीं । इसपर यदि उत्तरपक्ष यह कहना चाहे कि घटोत्पत्ति में असदृभूत व्यवहारकारणभूत कुम्भकारको कल्पनारोगित इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह मिट्टीकी इष्टार्थभूत निश्चयकारणताका बोध कराता है तो इस विषयमें हमारा कहना है कि वह मिट्टीकी इष्टार्थभूत निदचपकारणताका बोच किस रूपमें कराता है, इसका स्पष्टीकरण उत्तरपक्षको करना चाहिए था। दूसरे, उत्तरपक्षकी दृष्टि में कुम्भकार जब मिट्टीकी घटरूप परिणतिके होनेमें सर्वथा अकिंचित्कर बना रहता ई तो किस आधारपर वह मिट्टी को इष्टार्थभूत निश्चयकारणताका बोध कराता है, इसका स्पष्टीकरण उसे

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