Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा और त्रिकालबत्ती समस्त पदार्थीको घर्तमानके समान जानता है, इसलिये केवलशान प्रमाण है।" वह भी उपर्युक्त आधारपर प्रकृत प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
इसी तरह उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें आगे जो यह कथन किया है कि "अतः कार्योका किसीने कोई क्रम नियत नहीं किया है" यह लिखकर "सम्यक् नियतिका निषेषं का विजनहीं."मह भो उपर्युक्त विवेचनके आधारपर प्रकृति प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
___ यहाँ मैं इतनी बात और कह देना चाहता हूँ कि यद्यपि • उत्तरपक्ष द्वारा प्रकृत प्रकरण में निर्दिष्ट उपर्युक्त श्रुति, दिव्यध्वनि और केवलज्ञानकी चर्चा प्रकृत प्रकरणोंमें निरर्थक ही है तथापि उत्तरपक्ष यदि उनका उपयोग उपर्यवत प्रकारकी सम्यक नियतिके समर्थन में करना चाहता है, तो करे, परन्तु यह स्थल उसके लिये उपयुक्त नहीं है । इसपर मैं प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षा विशेष विचार करूंगा।
उत्तरपक्षने अपने इसी अनुच्छेद में लिखा -"एक ओर तो अपरपक्ष "कार्योका किसीने कोई कम नियत भी नहीं किया है" यह लिखकर कार्योंका आगे-पीछे होना मानना नहीं चाहता और दूसरी ओर उत्कर्षण आदिके द्वारा कर्मवर्गणाओंका आगे-पीछे उदयमें आना भी स्वीकार करता है । यह क्या है ? इसे अपरपक्षको मान्यताको विडम्बना ही कहना चाहिए" सो उत्तरपक्षने टाइपिस्टकी उक्त भलका लाभ उठाना चाहा है । परन्तु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं कि पूर्वपक्षका कथन 'अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस रूप में ही था। वास्तव में पूर्वपक्षकी मान्यता तो मही है कि प्रेरक कारणके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है। . इस तरह प्रकृत अनुच्छेदवे. अन्तमें उत्तरपक्षने जो लिखा यह है कि "स्पष्ट है कि अपरपक्षने" सभी कार्योंका सर्वथा काल नियत नहीं है" इत्यादि लिखकर जो सभी कायोंके क्रमनियतपनेका निपंध किया है वह उक्त प्रमाणों के बलसे तर्ककी कसौटी पर कसने पर यथार्थ प्रतीत नहीं होता" इससे वह केवल आत्मसन्तोप हो कर सकता है, क्योंकि न हमारी वैसी मान्यता है और न सभी कार्योका काल सर्वथा नियत है, यह ऊपर सिद्ध किया गया है।
(३) पूर्वपक्षने त० च पृ० १५ पर अनुच्छेद (अ) में निर्दिष्ट "सर्वकार्योका कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस मान्यताको पुष्टिमें १० च० पृ. १५ पर ही अनुच्छेद (आ) मे यह कथन भी किया है-- कमस्थितिबन्धके समय निक-रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदयमें आवेगी किन्तु बन्धावलिके पश्चात् उत्कर्षण, अपकर्षण, स्थितिकाण्डकघात, उदीरणा, अविपाकनिर्जरा आदि के द्वारा कर्मवर्गणा आगे-पीछे भी उदयमैं आती है" इत्यादि । हमारे इस कथनपर उत्तरपक्षने तृतीय भागमें त• च: पु० ४८ पर निम्नलिखित कथन किया है
"अपरपक्षने अपने तीसरे हेतु, कर्मस्थिति आदिके आधाररो विचारकर यह निष्कर्ष फलित करनेकी चेष्टा की है कि बन्धके समय जो स्थितिबन्ध होता है उसमें बन्धावलिके बाद उत्कर्षण आदि देखे अतः जो कार्य जिरा समय होना है उस आगे-पीछे भी किया जा सकता है"। उत्तरपक्षने इसके आगे लिखा है-"यद्यपि इस विषयपर विचार शंका ५ के अन्तिम उत्तरमें करने वाले हैं। यहां तो मात्र इतना ही सूचित करना पर्याप्त है कि सत्तामें स्थित जिस कमका जिस कालमें जिसको निमित्त कार उत्कर्षण आदि होना नियत है उस कर्भका उस कालमें उसको निमित्तकर ही वह होता है, अन्यथा नहीं ऐसी बन्धक समय