Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा पूर्वपक्षने अपने "सर्वकार्योका मर्वथा कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस कयनके समर्थनमें त० च पृ० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद (अ) में तीसरा तर्क यह प्रस्तुत किया है कि "और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" इसमें भी पूर्वपक्षका आशय यही है कि उत्तरपक्षने त च० पृ. ७ पर प्रेरक कारणके बलसे कार्यको आगे-पीछे करनेके प्रश्नको उठाकर जो उसे असंगत बतलाया है सो उसका इस प्रश्नको उठाना और फिर उसे असंगत बतलाना दोनों अनावश्यक है क्योंकि यह तथ्य है कि किसीने कार्योत्पसिका कोई क्रम नियत नहीं किया है । इसलिये इससे उत्तरपक्षका त० १० त०४८ पर निर्दिष्ट "अब रह गया यह तर्क कि "किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" सो यह तर्क पढ़ने में जितना सुहावना लगता है उतना यथार्थताको लिये हुए नहीं है" यह कथन भी प्रकृत प्रकरणमें सर्वथा निरर्थक हो जाता है तथा इसके निरर्थक हो जानेसे इसके समर्थनमें उत्तरपक्षके द्वारा नहीं पर प्रतिपादित "क्योंकि हमारे समान सभी तज्ञानी "जं जस्स जम्मि देसे" इत्यादि तथा “पुब्बपरिणामजुत्तं कारणभावेण बढ़दे दवं" इत्यादि घृतके बलसे यह अच्छी तरह जानते हैं कि कार्य जिस कालमें और जिस देशमें जिस विधिसे होता है वह कार्य उस कालमें और उस देशमें उस विधिसे नियमसे होता है। इसे इन्द्र, चक्रवर्ती
और स्वयं तीर्थकर भी परिवर्तित नहीं कर सकते" यह हेतुपरक कथन भी प्रकृत प्रकरणमें निरर्थक हो जाता है।
यहाँपर एक बात यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने “अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस बाक्यको केवल ''ओर किसोने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है" इस तर्क वाक्यका अंश समझ लिया है सो मैं उसे यह ध्यान दिला देना चाहता है कि उक्त वाक्यका संबंध केबल इसी तर्कवाक्यसे नहीं है अपितु उक्त अनुच्छेद (अ) के तीनों तर्कवाक्योंसे है। इसी तरह मैं उसे यह भी ध्यान दिला देना चाहता है कि पूर्वपक्ष द्वारा उक्त अनुच्छेद (अ) के प्रारंभमें निर्दिष्ट "सर्वकार्योंका सर्वथा 'कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है" इस वाक्यका संबंध भी केवल "प्रवचनसारकी अपनी
कामें श्री अमृतचंद्र आचार्यन कालनय और अकालनय, नियतिनय और अनियतिनय इन दोनोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है" इसी तर्कवाक्यसे न होकर तीनों तर्कवाक्योंसे है ।
अन्तमें यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रतिशंका तीनमें त. प. पृ० १५ पर पूर्वपक्षके कथनके रूप में जो अनुच्छेद (अ) है उसके अन्तमें जो यह वाक्य लिखा हुआ है कि "अतः आगे-पीछे करनेका प्रश्न ही नहीं उठता", उसमें 'आगे-पीछे करने के बीचमें 'न' शब्द छूट गया है। उसे 'अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" इस रूप में संशोधित कर पढ़ना चाहिए, क्योंकि पूर्वपक्षने लिखा तो यही था कि ''अत: आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता" परन्तु टाप करने वालेने उसमें "न" को छोड़ दिया । टाइपिष्टकी इस भूलसे जो गड़बड़ी हुई है उसे ठीक कर लेने पर ससरपक्षको उसके सम्बन्ध आलोचना करनेकी आवश्यकता नहीं रह जायेगी। .
उत्तरपक्षने अपने त० च० पृ० ४८ के उसी अनुच्छेदमें जो यह प्रतिपादन किया है कि "भताव श्रुतिके बलपर हमारा ऐसा जानना प्रमाण है और वह श्रुति दिव्यध्वनिके आधारसे लिपिबद्ध हुई है इसलिये दिव्यध्वनिके बलपर वह श्रुति भी प्रमाण है और वह दिव्यध्यनि केवलज्ञानके आधारपर प्रवृत्त हुई है, इसलिये केवलज्ञानके बलपर दिव्यध्वनि भी प्रमाण है और केवलज्ञानको ऐसी महिमा है कि बह तीन लोक