Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
(१) "यदि नयों के स्वरूप तथा विषयपर ध्यान दिया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त नेमितिक सम्बन्धका कथन निश्चयनयसे न होनेका प्रसंग ही उपस्थित नहीं हो सकता है। जो विषय जिस नयका है उसका कथन उसी नयसे किया जा सकता है, अन्य नयसे नहीं 1 यदि उस ही नयके विषयको अन्य नयका विषय बना दिया जायेगा तो सर्वविप्लव हो जायेगा और नय-विभाजन अर्थात नय-व्यवस्था भी रामीचीन नहीं रह सकेगी 1 जैसे प्रत्येक ट्रव्य व्यवहारनयको अपेक्षासे अनित्य है। यदि निश्चयनयको अपेक्षास भी द्रव्यको अनित्य कहा जायेगा तो व्यवहारनय तथा निश्चयनयम कोई अन्तर नहीं रहेगा। दोनों एक ही हो जावेगें । द्रव्यको नित्य लाने वाला कोई नहीन रखेमा : इस पद के दसरे धर्मका कथन नहीं हो सकनेके कारण वस्तुस्वरूपका ज्ञान एकांगी (सर्वथा एकांत रूप) एवं मिश्या हो जावेगा | अर्थात् द्रव्य एकांशतः अनित्य हो जायेगा और इस प्रकार पूर्ण क्षणिकवाद आ जायेगा । अतः अनित्यताका कथन भ्यवहारनयसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे नहीं । निश्चयनय तो व्यवहारनपके विषयको ग्रहण करनेमें अन्य पुरुषके समान है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि व्यवहारनयका विषय होनेसे अनित्यता प्रामाणिक, वास्तविक या सत्य नहीं है। अनित्यता भी उतनी ही प्रामाणिक, वास्तविक व सत्य है जितनी नित्यता" । त• च० पृ० १५
(२) "यदि ब्यवहारनयके विषयको प्रामाणिक नहीं माना जायेगा तो व्यवहारनय मिथ्या हो जायेगा । किन्तु श्रागम में प्रत्येक नयको प्रामाणिक माना गया है। ओ परनिरपेक्ष कुनय होता है उसीको मिथ्या माना गया है, सम्यक् नयको मिथ्या नहीं माना गया है ।" त० ५० १० १५ ।
(३) "एक द्रव्यके खण्ड या दो द्रव्योंका सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है । अतः दो अश्योंका सम्बन्ध होने के कारण निमित्त-नमितिक सम्बन्धका कथन व्यवहारनगसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे नहीं। जैसे परद्रव्योंके साथ जो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है उसका कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है. निश्चयनयसे नहीं। चूंकि यहां भी दो द्रव्योंका सम्बन्ध है, जैसे वर्णको आंख बता सकती है, नाक आदि अन्य इन्द्रियाँ नहीं। अतः नाक आदि अन्य इन्द्रियोंसे वर्ण नहीं है, यह कहनेका प्रसंग ही नहीं आता है। इसी प्रकार निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध निश्चयनयसे नहीं, यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि दो द्रव्योंका सम्बन्ध निश्चयनयका विषय ही नहीं है ।" त० च पृ० १५-१६ ।
__ इस प्रकार पूर्वपक्षके उपर्युक्त कथनोंसे यही निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष अराद्भूत ठयवहारनयको भी जो परमार्थ, वास्तविक और सत्य बतलाता है उसका आशय इतना ही है कि वह उसे आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं मानता है, किन्तु वह प्रत्येक नयके विषयको अपने-अपने तुंगसे ही परमार्थ, वास्तविक और सत्य मानता है अर्थात् निश्चयनयका विषय अपने बैंगसे, अनुमचरित सद्भूत व्यवहार नयका निषय अपने ढंगमे, उपचरित सद्भत व्यवहारनय का विषय अपने हंगसे अनुपचारित असद्भुत व्यवहारनयका विषय अपने ढंगसे और उपचरित असत व्यवहारनयका विषय अपने ढंगसे परमार्थ, वास्तविक और सत्य है। तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर ध्यान देना चाहिए । - उत्तरपक्षने तचपृ० ४९ पर इसी अनुच्छेदमें आगे लिखा है-"जही प्रत्येक द्रव्यको व्यवहारनयसे अनित्य कहा है वहीं वह सद्भत व्यवहारमयसे ही कहा गया है, जिसे आगमपद्धतिमें पर्यायार्थिक निश्चयनयरूप स्वीकार किया गया है, किन्तु जहाँ किसी एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्य के कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार किया जाता है वह सद्भुत व्यवहारनयका विषय न होकर असद्भूत त्र्यवहारनयका ही विषय है। कारण कि एक द्रव्यके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें रहता हो, यह त्रिकाल में संभव नहीं है। अतः एक