Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही उसमें योग्यता स्थापित हो जाती। कर्मशास्त्र में कर्मको बन्ध, उदय और उत्कर्षण मादि जो दस अवस्थाएं बतलायी है वे इसी आधारपर बतलायी है। हाँ, जिस अवस्थाको कर्मशास्त्रमें स्वीकार नहीं किया गया है व किसी का गला सामोके बलप अपरपक्ष होना सिद्ध कर सके तो अवश्य ही यह माना जा सकता है कि यह कार्य बिना उपादान शक्तिके केवल बाह्य सामग्रीको बलपर कर्ममें हो गया"। सो उत्तरपक्षके इस कथनके विषयमें कह देना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षको इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष की मान्यता भी यही है कि बिना उपादान शक्तिके केवल बाह्य सामग्रीके बलपर कर्ममें उत्कर्षण आदि नहीं हुआ करते हैं। पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि कर्ममें जो उत्कर्मण आदि होते है वे यद्यपि उसमें पाई जाने वाली उपादान शक्तिके बलपर ही हुआ करते हैं, परन्तु अनुकूल बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त होनेपर ही वे हुआ करते हैं । जैसे पूर्व में बतलाया जा चुका है कि चलते तो रेलगाड़ी के डिब्ये ही हैं और वे अपनी उपादान शक्तिके वलपर ही चलते हैं, परन्तु इतना अवक्ष्य है कि वे इंजिनका सहयोग प्राप्त होनेगर ही चला करते हैं। उसके सहयोगके बिना कदापि नहीं चलते हैं। इतना ही नहीं. रेलगाडीके डिब्बों और इंजिनके चलने में रेल पटरीका भी सहयोग आवश्यक रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रेरक कारणका कार्य किसी भी वस्तुमें बिना उपादान शाक्तिके कार्यको निष्पन्न करना नहीं है, केवल उपादानशक्ति विशिष्ट वस्तुम होने वाली कार्योल्पत्तिके प्रति प्रेरक कारणका कार्य उस वस्तुको प्रेरणा प्रदान करना है और उदासीन कारणका कार्य उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तु यदि कार्यरूप परिणत होने के लिए नेवार है तो जसे कार्यरूप परिणत होनेके अवसरपर अपना सहयोग प्रदान करना है अर्थात् प्रेरक कारणके योगसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है और उदासीन कारण यद्यपि कार्यको आगे-पीछे तो नहीं करा सकता है परन्तु बह कार्यरूप परिणत होनेके लिए तैयार उपादानको कार्यरूप परिणति में अपना सहयोग प्रदान किया करता है । यह सब विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
यहां मैं एक बात यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें सम्यक् नितिका स्वरूप ऐसा निर्धारित किया है कि जिस कार्यका जिस कालमें और जिस देशम जिस विधिसे होना निश्चित है वह कार्य उस कालमें और उस देशमें "उस विधिसे नियमसे होता है" रारे उत्तरपक्षकी दृष्टिमें सम्यक् निमतिका यदि यही स्वरूप है तो इससे "खोदा पहाड़ निकली चुहिया' वाली कहावत चरितार्थ होती है। यह सब में प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षामें स्पष्ट करूंगा। यहां तो मुझे केवल इतनी बात कहनी है कि उत्तरपक्षने जिस प्रकार सम्यक नियतिके स्वरूप में चतराईसे देश, काल और विधिका समावेश करनेकी चेष्टा की है उसी प्रकार वह यदि उनको उपयोगिता पर भी ध्यान देता तो संभव है उसे अपनी इस चेष्टाकी निरर्थकता समझमे आ जाती है और सब उसे त० च० पृ० ४९ पर "अतएव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि सम्यक नियति आगम सिद्ध है. अन्यथा न तो पदार्थ-व्यवस्था ही बन सकती है और न ही कार्यकारण व्यवस्था ही बन सकती है" यह निष्कर्ष फलित करनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि इसको स्वीकार किये बिना ही पदार्थ-व्यवस्था और कार्य-कारण ब्यवस्था दोनों ही बन सकते हैं । इसका भी स्पष्टीकरण प्रश्नोत्तर ५ की समीक्षा तथा अन्य प्रश्नोंकी समीक्षामें किया जायगा ।
कथन ३० और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षन उत्तरपक्षके प्रति वा
पृ० १५ पर यह कहा है कि-"आपने लिखा है कि" "दो