Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा पूर्वपशके इस कथनमें ऐसी कोई बात नहीं है जो उत्तरपक्षके उपयुक्त वक्तव्यका आधार बन सके, क्योंकि उत्तरपश्मने अपने उक्त वक्तनयमें जो कुछ लिखा है उसके विषयमें पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई विरोध नहीं है । पूर्वपक्षका इतना कहना अवश्य है कि यद्यपि पु झपाथहीन जीव ही होता है, लेकिन कर्मोदय की तीव्रताकी सहायता मिलनेभर होता है। इसी तरह यद्यपि जीव ही उत्कृष्ट पुरुषार्थी होता है, लेकिन कर्मोदयकी मन्दताका संयोग मिलने पर ही होता है।
तात्पर्य यह है कि जीव अपना पुरुषार्थ मन, वचन और कायके आघारमे किया करता है। यह पुरुषार्थ दो प्रकार का होता है-एक पुरुषार्थ तो कर्मोदयकी तीव्रतामें होता है जो संसार ( आत्माके अकस्याण का कारण रोता है और दुसरा पुरुषार्थ कर्मोदयकी मन्दतामें होता है जो मुक्ति (आत्मकल्याण) का कारण होता है। दोनों ही प्रकारके पुरुषार्थ जीव पौद्गलिक मन, वचन (मुख) और कापके बल पर किया करता है । इस तरह जब तक जीवमें कर्मोदयकी तीव्रता विद्यमान रहती है तब तक उसका मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थ आत्मकल्याणके प्रतिकूल ही होता है और जब जीक्में कर्मोदयकी मन्दता हो जाती है तब उसका मानसिक, वाचनिक और झायिक पुरुषार्थ आत्मकल्याणके अनुकूल होने लगता है। पूर्वपक्षने प्रकृतमैं जा "कत्यति बलिओ" इत्यादि पद्य का उद्धरण दिया है वह इसी अभिप्रायसे दिया है कि
व अपनी तीता और भन्दताके आधारपर क्रमशः जीवके आत्मकल्याणके प्रतिकूल और अनुकूल पुरुपार्योंके होनेमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्त कारण है व इसलिए निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका ही विषय होता है और यतः आत्माके अकल्याण और कल्याणका वास्तविक कारण उपयुक्त प्रकारका आत्म पुरुषार्थ ही होता है । अतः इस तरहके पुरुषार्थक आधारपर वह जीव अपने अकल्याण और कल्याणका वार्यकर्ता होनेके आधारपर निश्चयरूप होनेसे निश्चयनयका विषय होता है।
जीषके आत्मवल्याणके प्रतिकूल मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थको व्यवहारके रूपमें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिय्याचारित्ररूप बन्धमार्ग कहते हैं और जीवके आत्मकल्याणके अनुकूल मानसिक, वावनिक और कायिक पुरुरार्थको व्यवहारके रूपमें ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग कहते है तथा इसी व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यकचारित्ररूप पुरुषार्थके आधार पर ही जीवमें यविधि मिथ्यात्वादि कर्मोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर यथाषसर जो आत्मविशुद्धि प्रगट होती है उसे निश्चम सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यम्ज्ञान और निश्चय सम्यकचारित्रके रूपमें निश्चय मोक्षमार्ग कहते है।
कथन २९ और उसकी समीक्षा
(२९) उत्तरपक्षने पूर्वपक्षको प्रतिशंका दो पर विचार करते हुए त० च : पृ० ७ पर लिखा है"प्रेरक कारणके बलसे किसी द्रव्यमें कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो यह सिद्ध करना संगत न होगा"।
यद्यपि इस समीक्षाग्रन्यमें मैं पूर्वमें सिद्ध कर चुका है कि प्रेरक कारणले बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है, फिर भी उत्तरपक्षका यह कहना कि उसे 'सिद्ध करना संगत न होगा' स्वयं असंगत है। दोनों पक्षोंने इस विषयको लेकर तृतीय दौरमें अपने अपने पृथक्-पृथक् मन्तव्य व्यक्त किये है उनकी संगति-असंगतिका निर्णय करनेके लिए उन बक्तव्यों पर यहां पुनः विचार किया जाता है।