Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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नहीं है । प्रत इसके आधारसे यही सिद्ध होता है कि कालनयको विषयभूत वस्तु ही उस समय विवक्षाभेदसे अकालनयका भी विषय है । अव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे ही होते हैं ऐसा निर्णय करना हो सम्पक अनेकान्त हूँ" । सो उत्तरपक्षका यह कथन ऊपर किये गये उसके स्वयंके और पूर्वपक्ष के farartist देखते हुए सर्वथा अटपटा प्रतीत होता है, क्योंकि उसके उपर्युक्त विवेचनसे और पूर्वपक्षके यह होता है सर्वकार्यों का कोई एक नियतकाल है और न यह निर्णीत होता है कि कालनयकी विषयभूत वस्तु हीं उपर्युक्त प्रकार से उसी समय विवक्षाभेद अकालयका विषय होती है। इसके अतिरिक्त उक्त कथनसे यह भी निर्णीत नहीं होता कि "अतएव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे होते हैं ऐसा निर्णय करना ही सम्यक् अनेकान्त है" ।
आगे उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ४६ पर ही लिखा है कि 'नियतिनय और अनियतनयकी अपेक्षा विचार करनेपर भी उक्त कथनको ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमें क्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती हों, यह अर्थ इन नयोंका नहीं है । यदि यह अर्थ इन नयोंका किया जाता है। तो ये दोनों सप्रतिपचनय नहीं बन सकते हैं। अतएव विवक्षाभेदसे ये दोनों नय एक ही कालमें एक ही अर्थको विषय करते हैं, यह अर्थ ही इन नयका प्रकृत में लेना चाहिए'। सो उत्तरपक्षके इस कम्पनकी निः सारता मी काय और अकालनयके विषय में किये गये मेरे विवेचन व आचार्य अमृतचंद्रके कथनानुसार किये गये स्वयं उत्तरपक्षके उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध हो जाती है, क्योंकि वहाँ बतलाया गया है कि अस्तिनय और नास्तिनय, कालनय और अकालनय तथा नियतिनय और अनियविनय इन सभी नययुगलोंके अंशभूत प्रत्येक नयका विषय एक ही धर्म न होकर एक ही वस्तु में विद्यमान पृथक्-पृथक् धर्म ही होता है ।
अपने उक्त वक्तव्यमें उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "द्रव्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती है, यह अर्थ इन नयोंका नहीं है" । सो उत्तरपक्षको मालूम होना चाहिए कि आगम में स्वप्रत्यय ( षड्गुणहानिवृद्धिरूप ) पर्यायों को ही नियतक्रमसे स्वीकार किया गया है और उनसे अतिरिक्त सभी स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको निमित्तोंके सहयोग के अनुसार नियतक्रमसे और अनियतक्रमसे स्वीकार किया गया है, इसे पूर्व में स्पष्ट भी किया जा चुका है और आगे भी आवश्यकतानुसार स्पष्ट किया जायेगा । तात्पर्य यह है कि वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोकी सत्ताकी स्वीकृति ही अनेकान्त है और उनका कथन करना स्याद्वाद है । स्वाद्वाद ऐसे ही अनेकान्तका प्रतिपादक होता है, ऐसा जानना चाहिए ।
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसारकी अपनी टीकामें इन नयोका जा स्पष्टीकरण किया हूँ उसके विषय में ऊपर किये गये विवेचनके अनुसार पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षका कोई विरोध नहीं है। अपितु उससे उसके उक्त अभिप्रायकी पुष्टि न होकर पूर्वपक्ष के अभिप्रायको ही पुष्टि होती हैं। इसी तरह उत्तरपक्ष द्वारा त० च० पृ० ४६ पर आगे के अनुच्छेद में निर्दिष्ट " उत्पादन्यमत्रीभ्ययुक्तं सत्" ( त० सू०.५-३० ) तथा “सद्द्रव्यलक्षणम्" ( ० सू० ५-२८ ) इन सूत्रोंसे भी पूर्वोक्त प्रकार उसके अभिप्रायकी पुष्टि संगत न होकर पूर्वपक्ष के अभिप्रायकी पुष्टि ही संगत होती है। इतना ही नहीं, इसी अनुच्छेद में उत्तरपक्ष स्वयं अपने कथन में यह स्पष्ट स्वीकार कर रहा है कि “नियतिनय प्रत्येक व्यके द्रव्यस्वभावको विषय करता है और अनियतनय प्रत्येक द्रव्यके पर्यायस्वाभावको विषय करता है" । इससे स्पष्ट है कि दोनों नयका विषय वस्तुका एक धर्म न होकर पृथक-पृथक धर्म ही होता है। इसलिये उत्तरपक्षका यह लिखना भी मिथ्या है कि "सत्का अर्थ ही यह है कि जिस कालमें जो जिस रूपमें सत् है उस कालमें वह उस रूपमें स्वरूपले