Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
सामग्रीकी अपेक्षा यह कहा जाता है कि “इसने यह कार्य किया।" पूर्व में अपरमनने जो आठ प्रमाण उपस्थित किये हैं वे सब व्यवहारनयके वचन है अतः उन द्वारा यह सूचित किया गया है कि विस कार्य में कौन निमित्त है । प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्त व्यवहार योग्य वाह्य सामग्रीकी युति नियमसे होती है इसम्म सन्देह नहीं । परन्तु उपादान जैसे अपने कार्य में स्वयं व्यापारवान होता है वैसे बाद्य सामग्री जसके होने में व्यापारवान् नहीं होती यह सिद्धान्त है । इसे हृदयंगम करके यथार्थका निर्णय करना चाहिए।"
इस विषय में मैं कहना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके उपयुक्त विवेचनमें विवाद नहीं है, क्योंकि इसमें जो कहा गया है वहीं पूर्वपक्ष बहता है। इतना अन्तर है कि पूर्वगनके अनुसार निमित्तव्यवहार उसी वस्तु में होता है जो उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होती है जबकि उत्तरपक्ष मानता है कि उपादानकी कार्यरूप गरितिमें सहायक न होते हुए भी वाहा स्तमें निमित्त व्यवहार होता है। यहाँ सोचनेकी बात है कि जो सहायक नहीं है वह निमित्त-सहकारी कसे कहा जा सकता है । अतः पूर्वपक्ष की मान्यता युक्त एवं आगमसम्मत है और उत्तरपक्षकी मान्यता युक्त और आगम सम्मत नहीं है। इसे पहले भी कहा जा चुका है।
__ उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त विवेचनके समर्थन में पुरुषार्थसिद्युपायका भी उद्धरण दिया है, जो निम्न प्रकार है
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२।। इसका अर्थ उत्तरपक्षने यह किया है-"जीवके द्वारा किये गये परिणामको निमित्त मात्र करके उससे भिन्न पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप परिणम जात है।"
___ मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत किये गये इस श्लोकके अर्थ और उसके आशयमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । दोनों के दृष्टिकोणोंमें जो अन्तर है वह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है अर्थात् जहाँ पूर्वपक्षने निमित्तकारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपमे कार्यकारि माना है वहीं उत्तरपक्षने उसे कार्यक प्रति सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर स्वीकार किया है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षके वक्तव्यों और इस समीक्षामें किये गये विवेचनोंसे स्पष्ट है कि संसारी आत्माक विकारभाव और चतुर्मतिभ्रमणमें दोनों पक्ष संसारी आत्माको ही यथार्थ कारण मानत हैं, इसलिए इस विषयमें दोनों में विवाद नहीं है । तथा दोनोंको इस विषयमें भी विवाद नहीं है कि द्रव्यकर्मोदय उस कार्यका यथार्थ कर्ता न होकर उपचरितकता ही है। इसी तरह दोनोंको इसम भी विवाद नहीं है कि संसारी आत्मामें विद्यमान उक्त कार्यका यथार्थ कर्तुत्व निश्चयनयका विषय है और द्रव्यकर्मोदयमें विद्यमान उसी कार्यका उपचारित कर्तृत्व व्यवहारलयका विषय है। दोनोंमें विवाद केवल यही है कि जहां पूर्वपक्ष द्रव्यकर्मोदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुतिभ्रमणमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्तकारण मानता है और इसी आधारपर वह उसे उपचरितकर्ता मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहां उत्तरपक्ष उसे वहाँपर सहायक न होनेके आधारपर अकिंचिकर निमित्तकारण मानता है और इसो आधारपर वह उसे उपचरितकर्ता मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है ।
यद्यपि पूर्वपक्षने अपने "द्रव्यक्रमके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुतिभ्रमण होता