Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ को समीक्षा बुद्धि हो जाती है, पृषार्थ भी वैसा ही होने लगता है और सहायक (निमित) कारण भी वैसे ही मिल जाया करते हैं ' तथा इसे प्रमाणित करनेके लिये उसने वहींपर "तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥" इस लौकिक पद्यको भी प्रमाण रूपमें प्रस्तुत किया है।
उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत उक्त दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी है, अतः उत्तरपक्षको मह निर्णय करता है कि वह दोनोंमेरो किरा मान्यताको स्वीकार करता है । दोनोंमेंसे जिस मान्यताको वह स्वीकार कर लेता है उससे अतिरिक्त दूसरी मान्यताके प्रति उसे अपना मोह छोड़ देना चाहिए। इस विषयमें मैं आगे विस्तारपूर्वक विचार करूंगा।
प्रकृत्त शीर्षकके अन्तर्गत अन्तमें उत्तरपक्षने त. च० पृ ४३ पर लिखा है--"अब हमारे और अपरपक्ष के उक्त उल्लेखोंके आधारपर जब अकाल मरणका विचार करते हैं तो विदित होता है कि जब-जन्न पारमामें मनुष्यादि एक पर्यायके व्ययकी और देवादि रूप दूसरी पर्यायके उत्पादकी अन्तरंग योग्यता होती है तब-तब विषभक्षण, गिरिपात आदि बाह्य सामग्री तथा मनुष्यादि आयुका व्यय और देवादि आरफा उदय उसकी सुचक होती है और ऐसी अवस्था आत्मा स्वयं अपनी मनुष्यादि पर्यायका व्यब कर देवादि पर्याय रूपसे उत्पन्न होता है। इससे स्पष्ट होता है कि एक पर्यावके व्यय और दूसरी पर्यायके उत्पादरूप उपादान योग्यताके कालकी अपेक्षा विचार करनेपर मरणकी कालमरण संजा है और इसको गौण कर अन्य कर्म तथा नोकर्म रूप सूचक सामग्रीकी अपेक्षा विचार करनेपर उली मरणकी अकाल मरण संज्ञा है" |
इस विषयमें मैं विस्तारसे विचार तो आगे करूँगा यहाँ केवल यह कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने कालमरण और अकालमरणका अन्तर जिस आधारपर दिखलानेका प्रयत्न किया है वह न आगमसम्मत है और न युक्तिसंगत है । आगममें यह बतलाया है कि जहाँ आयुकी विपक्षण आदि बाह्म सामग्रीके बलसे सदीरणा होकर समाप्ति होती है वह अकालमरण कहा जाता है और जहां आयुकी निषेकनमसे उदय होकर समाप्ति होती है बङ्ग कालमरण कहलाता है। दोनों ही प्रकारके मरणोंमें जीवकी मनुष्यादि पर्यायका व्यय और देवादि पर्यायका उसाद समान रूपसे होता है । यद्यपि इस उत्पाद और व्ययमें दोनों मरणोंमेंसे कहीं भी कोई अतिरिक्त विशेषता नहीं पाई जाती है। उनमें इतनी ही विशेषता है कि अकाल मरणमें तो आमुकर्मकी उदीरणा होकर समाप्ति होती है और कालमरणमें आय-कर्मको निषेकक्रमसे उदय होकर समाप्ति होती है। यही गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कहा गया है--
विसबेयणरतक्खयभयसत्थगहणसंक्लेसेहि । उस्सासाहाराणं निरोधदो छिज्जदे आऊ ।। ५७ ।।
अर्थ :-विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रग्रहण और संपलेश तथा स्वास व आहारका निरोध होनेसे आयुका छेदन होता है ।
इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त निमित्तोंका समागम प्राप्त होनेपर आयुःकर्मकी उदो रणा होकर जीवका अकाल मरण होता है। इसी प्रकार तत्वार्थसूत्र में भी प्रतिपादित किया गया है
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ २-५३ ।।