Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
भाव है उसके आधारपर निमित्तकारणभूत वस्तु निमिसकारण हो सिख होती है और उस निमित्तकारणको are आधारपर पूर्व में कार्यकारी सिद्ध किया जा चुका है, वह अकिंचित्कर सिद्ध नहीं होता ।
आगमके उक्त प्रतिपादनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि अज्ञानादि विभावरूप परिणमन स्वकीय विभाग आधारपर जीवका ही होता है, अतः जीव हो उसका कर्त्ता है । परन्तु उसका वह परिणमन मिथ्यात्व कर्मके उदयका सहयोग मिलनेवर ही होता है। अतः उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में जो यह कहा है कि "संसारी जोव कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं कर्ता होकर अपने अज्ञा नादि कार्य करता है और कर्मोदय कर्ता न होकर मात्र उसका सूचक होता है" उसमें विवाद न होने से पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यमें यह लिखा है कि अन्य कारणों और कर्मोदयरूप कारणों में मौलिक अन्तर है। बाह्य सामग्री और अन्तरंग की योग्यता मिलनेपर कार्य होता है, किन्तु जातियाकर्मोदय के साथ ऐसी बात नहीं है। यह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है और इसकी पुष्टि उसने कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की पं० फुलचन्द्रजी द्वारा लिखित प्रस्तावनासे की है । परन्तु उत्तरपक्षाने त० च० पृ० ४२ पर जो उपर्युक्त कथन किया है उसे स्पष्ट होता है कि पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावनायें जो यह लिखा है कि 'कर्म वैसी योग्यताका सुबक हैं' वह उन्होंने जीव की विभावपरिणतिको उत्पत्तिमें कर्मोदयकी सहायक न होने रूप चित्रताको दृष्टिमें रखकर लिखा है जबकि पूर्वपक्षनेत० च० पृ० १२ पर अपने वक्तव्य में जो कर्मोंक्ष्यको अन्तरंग योग्यताका सूचक कहा वह इस दृष्टिसे कहा है कि कर्मोदय जीवकी विभावपरिणतिकी उत्पत्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि कर्मोदय जीवकी विभावपरि पतिका कर्ता नहीं होता है, क्योंकि विभावरूप परिणति वैभाविकशक्ति विशिष्ट जोबकी ही होती है, कर्मोंदयकी नहीं 1 किन्तु कर्मोदग्र जीवकी विभावरूप परिणति में सहायक होते रूपसे कार्यकारी है, वह अकिचित्कर नहीं है" इसकी पुष्टि पूर्वपक्षके ० च० पृ० १२-१३ पर उद्धृत पं० फूलचन्द्रजीके कथन के अन्तमें निर्दिष्ट इस कथन से होती है कि "कर्मोदय के निमित्तसे जीवको विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें वैसी योग्यता आती है" ।
इस तरह इस विश्वनसे स्पष्ट है किं पूर्वपक्ष जो कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक मानता है वह इस आधार पर मानता है कि कर्मोदय जीवको विभाव परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण होता है तथा उत्तरपक्ष जो कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक मानता है वह इस आधारपर मानता है कि कर्मोदय जीवकी विभावरूप परिणति में सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर ही बना रहता है। परन्तु यह तथ्य है कि जब तक जीवकी स्वतः सिद्ध विभाव शक्तिके आधारपर होने वाली विभाव परिणतिकी उत्पत्ति कर्मोदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी नहीं माना जाता है तब तक उसे उक्त अन्तरंग योग्यताका सूचक नहीं माना जा सकता है। दोनों पक्षोंमें यही मतभेद है। इसके बावजूद दोनों ही पक्ष कर्मो को जीवको विभावरूप परिणतिका कर्ता नहीं मानते हैं । अतः उत्तरपको यह भ्रम दूर कर देना हिए कि पूर्वपक्ष कर्मोदयको जीवकी विभाव परिणतिका कर्ता मानता है ।
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें कर्मोदयको अन्तरंग योग्यताका सूचक माननेके आधारपर पूर्वपक्ष प्रति प्रसन्नता व्यक्त की है। पर उसने पं० फूलचन्द्रजीके कर्मग्रन्थ पुस्तक ६ की प्रस्तावना प्रकट किये अभिप्रायको तत्वचर्चा में बदलकर स्वयं अपने ऊपर तुषारपात कर लिया है। अभिप्राय बदलने और उसपर कुछ कहने के पूर्व में यहाँ आवश्यक कूछ कथन कर देना चाहता हूँ ।
स०-१०