Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान की समीक्षा
त. च. पृ० ४२ के उपर्युक्त अनुच्छेद अन्तमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "पदि अपरपक्ष निमित्तनैमित्तिक भाव और कर्तृ फर्मभावमें निहित अभिप्रायको हृदयंगम करनेका प्रयास करें तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में देर न लगे।" इसके विषयमें भी मेग कहना है कि यदि उत्तरपक्ष निमित्त-नैमित्तिक भाव और कर्तु-कर्मभावमें निहित आगमके अभिप्रायको हृदयंगम करनेका प्रयत्न करे तो उसे वस्तुस्थितिको समभाने में देर न लगे, क्योंकि आममकी अवहेलना से इष्ट नहीं होगी। दोनों ही पक्ष कनकर्मभावको उपादानोपादेय भावके रूपमें स्वीकार करते हैं। सिर्फ निमित्त-नैमित्तिक भावके विषय में ही उनमें विवाद है,
पनि पूर्वप: गोर तिनको समया होने पसे कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे यहाँ पर सहायक न होने सपसे अकिंचिकर ही मामला है। इस मदेपर गम्भीरतासे विचार न कर उत्तरपक्ष उन्हीं बातोंमें स्वयं उलझा हुआ है और पूर्वपक्षको भी उन्ही में उलझाए रखना चाहता है, जिनमें दोनोंको अविवाद है। इसे उसकी चाल ही कहा जा सकता है। उत्तरपक्षसे हमारा कहना है कि वह अपने इस दृष्टिकोणमें परिवर्तन करे और पर्वपक्षके मन्तव्यपर गहराईसे विचार करें। हम माशा करते है कि ऐसा करनेपर वह अवश्य ही कार्योत्पत्तिमें निमित्तको पूर्वपक्षकी तरह सहायक होने रूपसे कार्यकारी स्वीकार कर लेगा, उसे अकिचिकर नहीं मानेगा । ऐसा करनेपर प्रकृत प्रश्नका समाधान हो सकता है। कथन २७ और उसकी समीक्षा
(२७) पूर्वपक्षने त० ० १० १२ पर यह कथन किया है कि-"अन्य कारणों और कर्मोदय रूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरंगकी योग्यता मिलनेपर कार्य होता है। किन्तु पातियाकर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है। वह तो मन्तरंग योग्यताका सूचक है । जैसा श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजीने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना पृष्ट ४४ पर लिखा है ।" इसके आगे उसने पं० फूलचन्द्रजीकी प्रस्तावना निर्दिष्ट अंशको उद्धत किया है, जो निम्न प्रकार है
__ "अन्तरंगमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गये हैं उसके सामने प्रबल रागको सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंग योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका मूल्य नही है । यद्यपि कर्मफे विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है। पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। कर्म वैसी योग्यसाका सूचक है, पर बाह्य सामग्रीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं है। कभी वैसी योग्यताके सदभावमें भी बाह्म सामग्री नहीं मिलती और उसके अभाव में भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है। उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मामें रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । अतः कर्मका स्थान ग्राह्य सामग्री नहीं ले सब-ती।" पूर्वपक्षने ५० फूलचन्द्र जीको प्रस्तावनाफे इस उद्धृत अंशकै आधारपर अपना मत प्रगट करते हुए लिखा है कि "अतः कमके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें वैसी योग्यता आती है।"
पूर्वपक्षके इस मतपर विचार करते हुए उत्तरपक्षने "कर्मोदय जीवको अन्तरंग योग्यताका सूचक है जीवभावका कर्ता नहीं" दीर्षकके अन्तर्गत तच १०४२ पर लिखा है कि "हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि अपरपक्षने अपने उक्त कथन द्वारा प्रातियाकर्मोदयको जीवकी अन्तरंग योग्यताका सूचक स्वीकार कर लिया है। इससे सूतराम् फलित हो जाता है कि संसारी जोष कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं का होकर अपने अज्ञानरूप कार्य करता है और कर्मोदय कर्ता न होकर मात्र उसका