Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कि यह पुद्गल स्वयं स्वतन्त्रसया आप कर्ता होकर उन गुणस्थान या रागादिको करता है इसलिए यहाँ उन्हें पीद्गलिक कहा गया है ।"
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हम उत्तरपक्षसे पूछना चाहते हैं कि पूर्वपक्षने समयसार गाथा ६८ की टीकाका तात्पर्य उक्त प्रकारका कहीं ग्रहण किया है ? उत्तरपक्ष यदि पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत समयसार गाथा ६८ की टीकाके उल्लेख
शको समझने की चेष्टा करता तो उसे ज्ञात हो जाता कि जीवकी परिणतिस्वरूप गुणस्थान व रागादिकको शुद्धनिश्चयनयसे पौद्गलिक और अशुद्ध निश्चयतय या व्यवहारनयसे जीवरूप माननेके विषय में दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद ही नहीं है । विवाद केवल इस त्रिषयमें है कि जिस प्रकार पूर्वपक्ष संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण मथकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण मानता है तथा उसे गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक माननेका आधारभूत पूर्वोक्त प्रकारसे सिद्ध प्रधान कारण और अशुद्ध निश्चयनय या व्यवहारत यसे जीव रूप माननेका आधारभूत पूर्वोक्त प्रकारसे ही सिद्ध गौण कारण स्वीकार करता है उस प्रकार उत्तरपक्ष गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनयसे पौगलिक माननेका आधारभूत कारण र अशुद्ध श्चियनय या व्यवहारनयसे जीव रूप माननेका आधारभूत गौण कारण स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि वह ( उत्तरपक्ष ) जब संसारी आत्मा के विकार - भाव और चतुर्गतिभ्रमणमे द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्त कारण मानता है तो उसे गुणस्थान व रागादिका शुद्ध निश्चयनय से पौगलिक व अशुद्ध निश्चयनयसे या व्यवहारनयसे जीव रूप माननेका आधारभूत प्रधानकारण और गोणकारण स्वीकार करना उसके ( उत्तरपक्ष के ) मत में सम्भव नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप गुणस्थान व रागादिको शुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक अचेतन और अशुद्ध निश्चयनयसे या व्यवहारनयसे जीव रूप स्वीकार करनेकी स० च० पृ० ४२ पर निर्दिष्ट उसकी मान्यता ही समाप्त हो जाती है, जो उसके लिये अभीष्ट नहीं है ।
कथन २६ और उसकी समीक्षा
(२६) पूर्वपक्षने संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण सिद्ध करनेके लिये त० ० पृ० १२ पर यह लिखा है कि "समयसार गाया ११३-११५ में कहा है कि जिस प्रकार उपयोग जीवसे अनन्य है उस प्रकार जीवको परिणति स्वरूप क्रोधभाव जीवसे अनम्य नहीं है " यह कथन भी पूर्वपचने इसी अभिप्रायसे किया है जिस अभिप्रायसे उसने समयसार गाथा ६८ की टीकाका उल्लेख किया है। परन्तु उत्तरपक्ष समयसार गाथा ११३-११५ का भी यही आशय लेना चाहता है जो आशय उसने समयसार गाथा ६८ की टीकाका लिया है। इसलिये ही उसने लिखा है कि "समयसार गाथा ११३ ११५ में भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है।" (त० ०
०४२) अर्थात् इससे उत्तरपक्ष यह प्रकट करना चाहता है कि उसका जो दृष्टिकोण समयसार गाया ६८ को टीकाके विषय में है वही दृष्टिकोण समयसार गाथा ११३ ११५ के विषय में भी है। इस विषय में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि जिस प्रकार उत्तरपक्षका समयसार गाथा ६८ की टीका में स्वीकृत दृष्टिकोण पूर्वपक्ष के अभिप्राय से विपरीत है उसी प्रकार उसका समयसार गाथा ११३ ११५ में स्वीकृत दृष्टिकोण भी पूर्वपक्षके अभिप्रायसे विपरीत है। अतः समयसार गाथा ६८ की टीकाकी तरह समयसारको गाथाएँ ११३-१९५ भी उत्तरपक्ष के लिए मूल प्रश्नका समाधान करनेमें सहायक नहीं हो सकती हैं ।