Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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क्यार (खनिया पपया और उसली सीक्षा (१) मिट्टीसे उत्पन्न होने वाले घटको उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत मिट्टी प्रधान कारण है क्योंकि घटकी सत्ताके साथ मिट्टीकी सता अनुस्यूत रहती है। परन्तु उसी घटकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणभूत फुम्भकार गौण कारण है, क्योंकि षटेकी सत्ताके साथ कुम्भकार की सत्ता अनुस्यूत नहीं है। इसका तात्पर्य पह है कि जब तक घट विद्यमान रहता है तब तक वह अपनी मिट्टीरूपताको नहीं छोड़ता है, परन्तु घटकी ससा रहते हुए भी कुम्भकारको सत्तासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है अर्थात् कुम्भकारको सत्ताकी पटकी सत्तामें कोई अपेक्षा नहीं रहती है । यहाँ घटोत्पत्ति में उपादानकारणभूत मिट्टी तो प्रधान कारण हैं और निमित्तकारणभूप्त कुम्भकार गौण कारण है।
(२) दर्पणको रक्तादिरूप परिणतिमें निमित्तकारणभूत रफ्तादि वस्तुएँ प्रधान कारण होती है और उपादानकारणभूत दर्पण गोण कारण होता है, क्योंकि दर्पणको जब तक रक्तादि वस्तुओंका समागम प्राप्त रहता है तभी तक दर्पणको रक्तादि रूप परिणति देखी जाती है और जब उन रक्तादि वस्तुओंका दर्पणके साथ समागम समाप्त हो जाता है तब दर्पणकी रक्तादि रूप परिणति भी समाप्त हो जाती है।
इसी प्रकार जीवमें उत्पन्न होने वाले रागादि भावोंकी उत्पत्तिमें निमिसकारणभत द्रव्यकर्मोदय प्रधानकारण होता है और उपादानकारणभूत जीव गौण कारण होता है, क्योंकि जीवकी रागादि रूप परिणति तभी तक होती है जब तक निमित्तकारणभूत कर्मका उदय उसमें विद्यमान रहता है । और जब जीवमें निमित्तकारणभूत कर्मका उदय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके होनेपर समाप्त हो जाता है तब उपादानकारणभूत जीवकी यह रागादि भाव रूप परिणति भी समाप्त हो जाती है। इससे सिद्ध है फि दर्पणकी रक्तादि रूप परिणतिमें रक्तादि वस्तुएँ और जीयकी रागादि भाव रूप परिणतिमें कर्मका उदय प्रषानकारण हैं व दर्पण और जीव गौण कारण है।
(३) जिस प्रकार कार्योत्पत्तिके उपादान और निमित्त दोनों कारणों से आगममें उपादानकारणको निश्चयशब्दको व्युत्पसिके अनुसार निश्चयनयका विषय और निमित्तकारणको व्यबहारयाब्दको व्युत्पत्तिके अनुसार व्यवहारमयका बिषय माना जाता है उसी प्रकार कार्योत्पत्तिमें कारण भत प्रधान और गौण दोनों कारणों में से प्रधान कारणको निश्चयशम्यकी व्युत्पत्तिके अनुसार निश्चयनयका विषय और गौण कारणको व्यवहारशब्दकी व्युत्पत्ति के अनुसार व्यवहारनयका विषय मानना उचित है। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार ५०-५६ तककी गाथाओंमें जीवके रागादि भावोंको जो पौद्गलिक कहा है उसका कारण यही है कि उनकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणभूत कर्मका उदय प्रधान कारण है और उपादानकारणभूत जीव गौण कारण है । अतएव उन्हें निश्चयनयमें पौद्गालिक तथा व्यवहारनयसे जोवरूप कहा गया है।
इस विवेचनसे संसारी आत्माके विकारभाय और चतुर्गतिभ्रमणके प्रति द्रव्यकर्मोदयमें विद्यमान निमितकारणताकी सर्वथा अकिंचिस्करता सिझन होकर सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उसीकी प्रसिद्धिके लिये तक च. १०१२ पर उपयुक्त कथन किया है। उत्तरपक्षका कर्तव्य था कि वह उक्त कथनके प्रकाशमें जीवके रागादि भावोंकी उत्पत्तिमें कर्मोदयको सर्वथा अकिचिल्कर निमित्तकारण माननेके अपने दुराग्रहको छोड़कर उसे बहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी मिमित्तकारण स्वीकार करता । परन्तु उसने ऐसा न कर तच. १०३८ से ४१ तक अपने कथममें उन अप्रासंगिक बातोंकी चर्चा उठायी है, जो न तो प्रकृत विषयके लिये आवश्यक है और न उपयोगी। फिर भी मेरा कहना है कि उसरपक्षको पूर्वपक्षके आक कयनमें संभव विरोधको दिखाना था, न कि पूर्वपक्ष जिन बातोंको मानता है उन्हीं बातोंको दोहराना था।