Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अखण्ड द्रव्य हूँ, बाय चारित्रसे आत्माका कल्याण होनेशला नहीं, प्रत्युत कर्मबन्ध होता है। इसे धारण कर तो यह जीव अनन्त बार अवेयकमें उत्पन्न हो चुका है।' इसके फलस्वरूप समाज में व्यवहार धर्म से अरुचि फैलने लगी है | कितने ही त्यागियोंने गृहीत त छोड़ दिये हैं, जनतामें रात्रिभोजन और अभयभक्षणकी प्रवृत्ति चल पड़ी है । और राधारण गृहस्थका जो कुलाचार है उसे भी लोग छोड़ रहे हैं। फिर देशव्रत और महाव्रतकी ओर लोगोंकी अभिरुचि जागृत हो यह दूरकी बात रह गई है। लोगोंकी यह मान्यता बनती जाती है कि धर्म तो एक निश्चय धर्म है, व्यवहार धर्म कोई धर्म नहीं है। वह तो मात्र बन्धका कारण है, उसके पालनेसे कुछ लाभ नहीं होता। अनादि कालसे लगे हुए मोहके संस्कारवश जनता तो त्यागके मार्गसे दूर रहती है, उस पर उसे ऐसे उपदेश मिलें कि व्यवहार धर्म में क्या रखा है ? तब तो उसे त्यागकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ हो जायगी। इसी अभिप्रायसे यह प्रश्न था कि "व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें कारण है या नहीं ?" पर इस ओर आपका लक्ष्य नहीं गया ऐसा जान पड़ता है।
मोक्षमार्गप्रकाशकके जो अवतरण आपने दिये है उनसे यह अभीष्ट सिद्ध नहीं होता कि व्यवहार निश्चयका साधक नहीं है। किन्तु उससे तो यही सिद्ध होता है कि व्यवहार निश्चयका साधक है, क्योंकि वहाँ पर भी व्यवहारको निश्चयका निमित्त कहा गया है। जिमागमका उपदेश नयवादको लिये हुए है और नयवाद पात्र के अनुसार होता है। इसीलिए नयको परार्थ श्रुतज्ञानका भेद माना गया है। श्री अमृतचन्द्र स्वामीने पञ्चास्तिकायकी टीकाके अन्तमें प्राथमिक शिष्यों के विषयमें निम्नांकित पंक्तियां बड़ी महत्त्वपूर्ण लिखी हैं
व्यवहारमयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः ।
अर्थ-जिनकी बुद्धि अनादि कालसे भेदभाव कर वासित हो रही है ऐसे प्राथमिक शिष्य भिन्न साष्यसाधनभावका अवलम्बन लेकर मुखसे ही धर्मतीर्थ में अवतीर्ण हो जाते हैं। धर्मको अनायास प्राप्त हो जाते हैं।
इसके आगेकी पंक्तियां भी द्रष्टव्य है, जिनमें उन्होंने प्राथमिक शिष्य व्यवहार धर्मसे आत्मसाधना करता हुआ निश्चय धर्मको प्राप्त होता है इसका उल्लेख किया है
तथाहीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदमश्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदमज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्त्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैः शनर्मोहमल्लमुन्मूलयन्तः कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलतात्माधिकारस्यात्मनो न्याय्यपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः पुनः पुनर्दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोयुक्ताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानवारित्ररधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नमाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वंगमलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शनशानचारित्रसमाहितत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरंगपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूचयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य साक्षारमोक्षमनुभवन्तीति ।
अर्थ-'तीर्थ क्या है? सो दिखाते है-जिन जीवोंके ऐसे विकल्प होंहि कि यह वस्तु श्रक्षा करने मोग्य है, यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य नहीं है, श्रद्धा करनेवाला पुरुष ऐसा है, यह श्रद्धान है, इसका नाम अथद्वान है, यह वस्तु जानने योग्य है, यह नहीं जानने योग्य है, वह स्वरूप ज्ञाताका ह, यह ज्ञान है,