Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उनका यथोचित सम्पर्क कार्यरूप परिणत होने वाली अर्थात् उपादानकारणभूत वस्तुके साथ होता हूँ। इतना अत्र है कि मिट्टी के साथ दण्डचक्रादिका यथोचित सम्पर्क होने पर ही घटोत्पत्ति हो सकती है, यह जान लेने पर ही कुम्भकार घटोत्पत्ति के लिये मिट्टी के साथ अपना व दण्डचक्रादिका ययोचित सम्पर्क करता है । इस तरह उत्तरपक्षने इस विषयको लेकर जो कुछ कथन किया है वह सब व्यर्थ और अनावश्यक है । fare विवेचनसे स्पष्ट है कि दोनों पक्षोंके मध्य में निम्न मान्यताएँ समान हैं - (क) रागादिभावरूप परिणति जोवकी हो होती है, कर्म की नहीं । (ख) जीव ही रामादिभावका यथार्थ कर्ता है, कर्म उसका यथार्थ कर्ता न होकर अयथार्थ कर्ता है। (ग) कर्म में विद्यमान मह अथार्थं कर्तृत्व व्यवहारतत्रका ही विषय है। निश्चयनयका नहीं । (घ) जीव परका सम्पर्क करनेमें स्वतंत्र है और सुख-दुःख आदि परके सम्पर्कसे ही होते हैं । इन समान मान्यताओंके साथ दोनों पक्षोंके बीच निम्न मान्यताएँ विवादग्रस्त भी हैं । (क) जहाँ पूर्वपक्ष जीवकी रागादि परिणतिमें द्रव्यकर्मोदयको सहायक होनेसे कार्यकारि निमित्तकारण मानता है। ant उत्तरपक्ष उक्त रागादिपरिणतिमें उस द्रव्यकर्मके उदयको सहायक न होनेसे अकिचित्कर निमित्तकारण स्वीकार करता है । (ख) इसी तरह जहाँ पूर्वपक्ष उक्त कार्य ( गगादिपरित) के पति कर्णेदयको सहायक होने से कार्यकारि होने के आधारपर अयथार्थकर्ता मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उस कार्यके प्रति उक्त द्रव्यर्मोदयको सहायक न होनेसे अकिंचित्कर होनेके आधारपर अयथार्थकर्ता अंगीकार करता है। (ग) इसी प्रकार जहां पूर्वपक्ष द्रव्यकर्मोदकी निमित्तकारणता और उसकी अवथार्थकताको स्वीकार कर उसकी कार्यकारिता के आधारपर उसे कथंचित् भूतार्थ रूप में व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उक्त द्रव्यकर्मोदयको निमित्त कारणता और उसको अयथार्थकताको स्वीकार कर उक्त कार्यके प्रति सहायक न होनेसे आयी अकिंचित्करता के आधारपर उसे सर्वथा अभूतार्थरूप में व्यवहारनयका विषय मानता है। इनके सम्बन्ध में पहले पर्याप्त स्पष्ट किया जा चुका है । अतएव पूर्वपक्षको मान्यताएँ ही आगमसम्मत है, उत्तरपक्षको मान्यताएँ आगमसम्मत नहीं हैं ।
कथन ७ और उसकी समीक्षा
(७) उत्तरपक्षने स० च० पृ० ३५ पर यह कथन किया है कि - "परमात्मप्रकाश दोहा ६६ में आया हुआ 'विधि' शब्द जहाँ द्रव्यकर्मका सूचक है वहीं पर परमात्मा की प्राप्ति के प्रतिपक्षभूत भावकर्मको भी सूचित करता है ।" इस विषय में पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु इराके आगे वहीं पर उत्तरपक्षने कथन किया है कि "जब इस जीवकी द्रव्य पर्याय स्वरूप जिस प्रकारकी योग्यता होती हैं तब उसकी उसके अनुसार ही परिगति होती है और उसमें निमित्त होने योग्य बाह्यसामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है ऐसा ही त्रिकालाबाधित नियम है, इसमें कहीं अपवाद नहीं" इस कथन के अन्तिम अंश ( उसमें निमित्त होने योग्य बाह्य सामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है ऐसा ही त्रिकालाबाधित नियम है इसमें कहीं अपवाद नहीं)
में पूर्वपक्षको विवाद है क्योंकि उसके आधारपर उत्तरपक्ष यह सिद्ध करना चाहता है कि "जब उपादान कारणभूत वस्तु विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है तब उसको उसके अनुकूल निमित्त नियमसे मिल जाया करते हैं" परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुकी विवक्षित कार्यरूप परिणति पूर्वोक्त प्रेरक और उदासीन निमितोंका सम्पर्क प्राप्त होनेपर ही होती है और न मिलने पर नहीं होती । तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्षकी मान्यता के अनुसार उपादानसे जब जैसा कार्यं उत्पन्न होता है सब निमित्त भी उसीके अनुकूल प्राप्त होते हैं और पूर्वपक्ष की मान्यताके