Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (स्वानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
निषेध यह कहकर किया है कि लोकमें जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्मके उदयको निमित्तकर ही होता
हैं | तूं बाह्य सामग्री मिलानको चिन्ता में आत्मवंचना कर्मका उदय हो तो बाह्य सामग्री से क्या लाभ? द्वारा यह सूचित किया है कि शुभाशुभ कर्म तेरी अनुरूप कर्मबन्ध होगा और उत्तरकालमें उसका फल और ध्यान दे । शुभाशुभ कर्म तो उपकार अवकार में यह नयवचन है, इसे समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रत्येक सद्गुरुषका सद्भाव सदा रहने से कभी भी जीव उससे मुक्त न हो सकेगा ।" त०
करता है ? अनुकूल बाह्य सामग्री हो और अशुभ उसका होना और न होना बराबर है तथा उत्तराद्ध करनीका फल है इसलिये जैसी तूं करनी करेगा उसीके भी उसीके अनुरूप मिलेगा । अतएव तूं अपनी करनीकी निमित्तमात्र है, वस्तुतः उनका कर्ता तो तू स्वयं है । कर्त्तव्य है। अन्यथा शुभाशुभ कर्मका ० पृ० ३७ ।
(३) "जिसे उपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है और जिसे अपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है मह संयोगी अवस्था | अतएव जिसके संयोग में इसके होनेका नियम है उसका ज्ञान इस वचन द्वारा कराया गया है। इतना ही आशय इस गाथाका लेना चाहिए। हमने शंका ५ के अपने दूसरे उत्तरमें जो कुछ भी लिखा है, इसी आशयको ध्यान में रखकर किया है अतएव इसपर से अन्य आशय फलित करना उचित नहीं है ।" त० च० पृ० ३८ ॥
(४) " प्रश्न १६ के प्रथम उत्तर हमने मोह, राग, द्वेष आदि जिन आगन्तुक भावोंका निर्देश किया है उसका आशय यह नहीं कि वे जीवके स्वयंकृत भाव नहीं हैं। जीव ही स्वयं बाह्य सामग्री में इष्टानिष्ट या एकत्वबुद्धि कर जन भावरूप परिणमता है, इसलिये ये जीवके ही परिणाम हैं ।" त० च० पृ० ३८ । उत्तरपक्ष पूर्व वक्तव्यका उपर्युक्त जिन चार अनुच्छेदों द्वारा निराकरण करनेकी चेष्टा की है उनमें से प्रत्येक अनुच्छेदक समीक्षा यहाँ प्रस्तुत की जाती है
(१) जिस प्रकार शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते हैं इस विषय में उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके साथ जीवके उपकार या अपकारकी बहिर्व्याप्ति मानता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है । इस विषय में पूर्वपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदय के साथ संसा आत्मा विकारभाव और चतुर्गति भ्रमणकी बहिर्व्याप्ति मानता है और जिस प्रकार उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके उदयको जीवके उपकार था अपकार में निमित मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्मा धिकारमाव और चतुर्गति भ्रमण में निमित्त मानता है । इसलिये उत्तरपक्ष प्रथम अनुच्छेदके द्वारा पूर्वपक्षका ही समर्थन करता है । परन्तु दोनों पक्षोंके मध्य अन्तर इस बातका है कि जहाँ पूर्वपक्ष द्रव्यकर्म के उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त मानता है वहीं उत्तरपक्ष शुभाशुभ कर्मके उदयको जीवके उपकार या अपकार में सहायक न होने रूपसे referee निमित्त मानता है ।
(२) यतः उत्तरपक्षको संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपये कार्यकारी निमित्त मानना अभीष्ट न होकर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर निमित्त मानना ही अभीष्ट है अतः उसने द्वितीय अनुच्छेद में "लोक में जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्मक उदयको निमित्त कर ही होता है" ऐसा लिखकर भी निमित्तको अकिचित्कर सिद्ध दिया है कि "शुभाशुभ कर्म तेरी करनीका फल है ।" परन्तु इतना लिखनेपर भी के द्वितीय उत्तर के अनुसार जीवकी उपकार या अवकार रूप परिणति में शुभाशुभ
करनेके लिये यह भी लिख
उसके सामने शंका नं० ५ कर्मोदयको सहायक होने