Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कथन २२ और उसकी समीक्षा
(२२) आगे तक च. १०३८ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "समयसार गाथा २७८-२७९ का क्या आशय है इसका विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये।" सो इस विषय में भी मेरा कहना है कि उत्तरपक्षने जहाँ पर यह खुलासा किया है वहींपर मैं उसकी संगति-अमंगतिका भी स्पष्टीकरण कर आया हूँ । अतः यहाँ उसकी समोक्षामें कुछ कहना पिष्टपेपण होगा। कथन २३ और उसकी समीक्षा
{२३) उत्तरपक्षने त० च० पृ० ३८ पर आगे और लिखा है कि "एक जीव ही क्या, प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है, अतएव जिस भाव' रूप वह परिणमता है उसका कर्ता यह स्वयं होता है। परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया ये तीनों वस्तुपनेकी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं इसलिए जब जो परिणमन उत्पन्न होता है उस रूप वह स्वयं परिणम जाता है, इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं। राग, तू'ष आदि भाव कर्मोदयके द्वारा किये जाते है यह व्यवहार वचन है। कर्मका उदय कर्ममें होता है और जीवका परिणाम जीवमें होता है ऐसी दो क्रियायें और दो परिणाम दोनों द्रव्योंमें एक कालमें होते है, इसलिए कर्मोदय में निमित्त व्यवहार किया जाता है। और इसी निमित्त व्यवहारको लक्ष्यम रखकर यह कहा जाता है कि इसने इसे किया। यह उसी प्रकारका उपचार वचन है जैसे मिट्टीके घड़ेको घी का घड़ा कहना उपचार वचन है। तभी तो आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा १०७ में ऐसे वचनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है।" इसकी समीक्षा इस प्रकार है
यह तथ्य है कि जिनागममें प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव वाला माना गया है, इसलिए उसका जो परिणमन होता है वह उसमें ही होता है और उस रूप ही होता है तथा उस रूप होने के कारण जसका का भी वही द्रव्य होता है। इसके अनसार उत्तरपसका यह कथन निर्विवाद है कि "परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया ये तीनों वस्तुपनेकी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं है" तथा उसका यह कथन भी निर्विवाद है कि "जिस भाव रूप वह परिणमता है उसका कर्ता वह स्वयं होता है।"
किन्सु उसी जिनागममे यह भी बतलाया गया है कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव बाला तो है परन्तु उसका कोई परिणमन तो स्वयं अर्थात निमित्तकारणभूत बस्लुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप
हा करता है और कोई परिणमल निमित्त कारणभत वस्तुका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होता है, अपने आप नहीं होता। इसका कारण यह है कि जिनागममें स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारफे परिणमन बतलाये गये है। यह ही बतलाया गया है कि उनमेंसे स्वप्रत्यय परिणमन तो निमित्त कारणभुत वस्तुका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही होते रहते हैं, परन्तु स्वपरप्रत्यय परिणमन निमित्तकारणभूत वस्तुका सहयोग प्राप्त होने पर ही होते है अपने-आप नहीं होते। इससे यह निर्णीत होता है कि संसारी आत्माका जो विकारीभाव और चतुर्गतिभ्रमण रूप परिणमन होता है वह स्वपरप्रत्यय परिणमन है और वह द्रव्यकर्मोदयकी सहायता प्राप्त होनेपर ही होता है, उसके बिना अपने आप नहीं होता। इस प्रकार द्रव्यकर्मोदय
और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमिप्त-नमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाष विद्यमान है। फिर भी कर्मके उदय रूप परिणामका प्रवेश संसारी आत्मामें नहीं होता व संसारी आत्माके १. देखो, तः सू० ५-३० । २. देखो, त• सू० ५-७ को स० सिद्धि टीका ।