Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रूपये कार्यकारी निमित्त अभीष्ट न होते हुए भी उसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है। इसका कारण यह हैं कि जीवकी उपकार या अपकार रूप परिणति
कर्मोविकार
चतुर्गतिरूप परिणति में द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकारण मानकर भी यदि उन्हें वहाँ पर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिंखिस्कर निमित्तकारण ही माना जाये, तो ऐसी अवस्था में शुभाशुभ कर्मोदयको जीवक्री उपकार - अपकाररूप परिणतिमें और द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आमाको विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण रूप परिणतिमें निमित्त रूपसे कारण माननेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रह जावेगी । लेकिन इस प्रकारको अनावश्यकताका समर्थन न तो आगमसे होता है और न उत्तर पक्षको अभीष्ट ही है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट कर चुका है कि बागम में कार्यके प्रति निमित्तकारणकी आवश्यकताको स्वीकार किया गया है तथा उत्तर पक्ष भी कार्यके प्रति निमित्त कारणकी आवश्यकताको स्वीकार करता है । इसलिये शुभाशुभ कर्मोदयको जीवकी उपकार - अपकार रूप परिणतिमें व कर्मोदयको संसारी आत्माकी विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण रूप परिणति में उन्हें उस उस कार्य रूप परिणत न होनेपर भी उस उम्र कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निर्मित कारण मानना अनिवार्य है ।
उत्तरपक्षने द्वितीय अनुच्छेदमें जो लिखा है कि "उसका कर्ता तूं स्वयं है । यह नयवचन है । इसे समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रत्येक सत्पुरुपका कर्तव्य है । अन्यथा शुभाशुभ कर्मका सद्भाव सदा रहने से कभी भी यह जीव उससे मुक्त न हो सकेगा " उसके विषय में मेरा कहना है कि जीवको ही उपकार - अपकार रूप परिणति होती है और संसारी आत्मा ही विकारभाव तथा चतुर्गति-भ्रमण रूप परिणत होता है, इसलिए ये ata या संसारी आत्मा ही उनका उपादान कारण, निश्चय कारण और मुख्य कर्ता होता है । परन्तु परिणतियाँ शुभाशुभकर्मोदय और द्रव्यकर्मोदयको सहायता मिलनेवर ही होती है, अन्यथा नहीं, इस सथ्यको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है । यह सब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। उत्तरपक्षकी यह आपत्ति कि शुभाशुभ कर्मोदयको जीवको उपकार - अपकार रूप परिणति में व द्रव्यकर्मोदयको संसारी आत्माकी विकारभाव तथा चतुर्गातिभ्रमण रूप परिणति में कारण माननेपर शुभाशुभकर्मोदय और द्रव्यक्रमोंदयका सद्भाव सदा रहने से जीव व संसारी आत्मा कभी भी उनसे मुक्त नहीं हो सकेंगे, व्यर्थ है, क्योंकि जीव या संसारी आत्मा शुभाशुभकर्मका या द्रव्यकर्मका उदय रहते हुए भी यदि उनका क्षयोपशम अथवा क्षय करनेके लिए अपना मानसिक, वाचनिक और कायिक पुरुषार्थ लगें, तो ऐसे पुरुषार्थके आधारपर वे उन शुभाशुभ कर्मो के उदयको या corris हूँ । आगम में इस बात को स्पष्टतया स्वीकार किया गया है। यह हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं ।
यथायोग्य उपशम, अनुकूल रूपमें करने
को नष्ट कर सकते
उत्तरपक्षने अपने इसी द्वितीय अनुच्छेदमें स्वा० का० अ० के आधारपर ही उक्त कथन के अतिरिक्त जो भी कथन किया है उसका सम्बन्ध प्रकृत विषयसे न होनेके कारण यहाँ उसकी समीक्षा करना बेकार है और समय एवं शक्तिका अपव्यय है । इतना अवश्य कहना है कि इस ( ३१९वीं ) गायासे जीव की उपकार - अपकाररूप परिणति में शुभाशुभकर्मोदय सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण ही सिद्ध होता है । जैसा कि उत्तरपक्षको स्वयं भी गायाका अर्थ करते हुए स्वीकार करना पड़ा है ।
(३) उत्तरपक्ष ने तृतीय अनुच्छेद में जो कुछ लिखा है उससे वह यह बतलाना चाहता है कि शुभाशुभ कर्मोदय जीवके उपकार या अपकारका यथार्थ कर्ता नहीं है। उसके विषय में पहले स्पष्ट किया जा चुका है। कि उत्तरपक्ष की इस मान्यतामें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। पूर्वपक्ष का तो केवल यह कहना है कि यह
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