Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
नहीं होते है। इसलिये जिस प्रकार प्रेरक निमित्त होनेके आधारपर राजाको युद्धका कर्ता माना जाता है उसी प्रकार ज्ञानाधरणादिक रूप परिणति उपादानकारणभुत पुद्गलकी होनेपर भी जीवको व्यवहार (उपचार) से उनका कर्ता माना जाता है क्योंकि वह जीव समयसार गाथा १०५ के अनुसार पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमममें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हेतु होता है।
___ इस तरह उपर्युक्त विवेचनके अनुसार समयमार गाथा १०७ के माध्यमसे आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि आत्माका पुद्गलको कर्मरूपसे उत्पन्न करना या करना, बांधना,परिणमाना और ग्रहण करना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है। जिसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि आत्मा पुद्गलकर्मरूपसे उत्पन्न नहीं होता या पुदगलकर्मरूप नहीं होता, पुद्गलकर्मरूपसे नहीं बंधता, पुदगलकर्मरूपसे नहीं परिणमता और पुदगलकर्मरूपये ग्रहीस नहीं होता, क्योंकि कर्मरूपसे उत्पत्ति, कर्मरूपसे रचना, कर्मरूपसे बन्ध, कर्मरूपसे परिणमन और कर्मरूपसे ग्रहण पुद्गलका ही होता है, तथापि पुद्गलकी ये सभी अवस्थायें आत्माके सहयोगके बिना सम्भव नहीं हैं । अतः आत्माका पुद्गलको कर्मरूपसे उत्पन्न करना या करना, बांधना,
पना और मामला न सापक होने मासे व्यवहारनयका ही ऋथन निर्णीत होता है अर्थात् उत्पन्न होना और उत्पन्न करना, निर्मित होना और निर्मित करना, बंधना और बांधना, परिणत होना और परिणत कराना तथा ग्रहण होना और ग्रहण करना इन पांचों विकल्प-युगलोंमें पहला-पहला विकल्प ही निश्चयनयका विकल्प है दूसरा-दूसरा व्यवहारनयका विकल्प है।
इसका स्पष्टीकरण आचार्य कुन्दकुन्दके समयशार गाथा १०८ के माध्यमसे इस प्रकार किया गया है कि जिस प्रकार प्रजा अपने स्वभावके अनुसार ही दोष और गुण रूप बनती है परन्तु “यथा राजा तथा प्रजा" की लोकोक्तिके अनुसार राजाको प्रजाके दोष और गुणका उत्पादक माना जाता है उसी प्रकार आत्माको पुद्गलके कर्मरूप परिणमनका उपर्युक्त प्रकार व्यवहार रूपसे उत्पादक कहा जाता है। कथन २४ और उसकी समीक्षा
२४. उत्तरपक्षने 'अध्यात्ममें रागादिको पौद्गलिक बतलानेका कारण' शीर्षकसे त० च० पृ० ३८ से ४१ तक जो कथन किया है वह अनुपयुक्त और निरर्थक है क्योंकि एक तो उस कथनके प्रतिपाद्य विषयक सम्बन्धमें पूर्वपक्ष भी सहमत है । दूसरे, प्रकृत विषयमें उसकी कोई उपयोगिता नहीं है । इसका खुलासा इस प्रकार है
१. उत्तरपक्षके उक्त क्रथनके सम्बन्धमें पूर्व पक्ष के सहमत होने के कारण निम्न है
(क) उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी रागादि भावोंका वास्तविक कर्ता जीवको ही मानता है, पुद्गल. को नहीं।
१. जोधेहि कदे जुदे रारण कदं ति जंपदे लोगो ।
तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥१०६/-समयसार । उप्पादेदि करेदि य बंघदि परिणामए दि गिहदि य ।
आदा पुग्गलदवं व्यवहारणयस्स.वत्तब्ध ॥१०॥-समयसार ३. जह राया बवहारा दोस-गुणम्पादगो त्ति बाल विदो।
तह जीवो ववहारा दब्बनणप्पादगो भणिदो ॥१०८11-समयसार