Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान १ की समी ।
अन्त में उत्तरपसने अपने इसी वक्तव्यमें यह कयन किया है कि "स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है। इसी प्रसंगमें उक्त गाथा आई है अतएव प्रकरणको ध्यान में रखकर उसके हादको ग्रहण करना चाहिए" उसका यह कथन विवादका विषय न होनेपर भी उसके सम्बन्धमें इतना कहा ही जा सकता है कि यहाँ उस उपकारकी संगति तभी संभव हो सकती है जब केवलज्ञानावरण कर्मके उदयको केवलज्ञानका घात करनेमें सहायक होने कापसे कार्यकारी प्रेरक निमित्तकारण स्वीकार किया जाये । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञानकी प्रकटताके अभावरूप केवलज्ञानका बात तो जीवमें ही होता है, परन्तु उसमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी प्रेरक निमित्तकारण ज्ञानावरणकर्मका लक्ष्य है। गाथाका हाई इसी सपमें मान्य किया जाना चाहिए। कथन १९ और उसकी समीक्षा
(१९) पूर्वपक्षने, संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिश्रमणल्प कार्य प्रति द्वन्यकर्मका उदय सहायक होने रूपरो कार्यकारी रूपमें निमित्तकारण है, इसे उत्तरपक्ष के कथनसे भी समर्थित करने के लिये तः च पृ० १२ पर निम्नलिखित कथन किया है
"प्रश्न नं ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का अ० गाथा ३१९ को उक्त करते हुए आपने स्वयं स्वीकार किया है कि जीवका उपकार या अपकार शुभाशुभ कर्म करने है। तथा प्रश्न नं १६ के प्रथम उत्तरमें भी आपने यह स्वीकार किया है कि जीवमें बहुत से धर्म ऐसे होते हैं जो आगन्तुक है और जो संसारकी विवक्षित भूमिका सक आत्मामें दृष्टिगोचर होते हैं उसके बाद ससमें उपलब्ध नहीं होते।"
उत्तरपक्षके इस कथनसे पूर्वपक्षने यह सिद्ध किया है कि जब उत्तरपक्षने प्रश्न ने० ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा का अ० गाथा ३१९ के आधारसे जीबके उपकार अपकारको करने वाला शुभाशुभ कर्मोदय है, यह स्वीकार किया है और प्रश्न नं. १६ के प्रथम उत्तर में जीवके मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भावोंको आगम्सुक माना है तो उसे संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गति भ्रमणके प्रति ब्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण मानने में क्यों आपत्ति होना चाहिए ?
उत्तरपक्षन्ने प्रश्न नं० ५ के द्वितीय उत्तर और प्रश्न नं० १६ के प्रथम सत्तरमें जो उपर्युक्त प्रकारसे लिखा है उसके आवारसे पूर्वपक्षने कहा था कि उत्तरपक्ष भी पूर्व पक्षको मान्यताका समर्थन करता है। सो पूर्वपक्षके इस कथनका उसने प्रथम प्रश्नोत्तरके तृतीय दौर में निम्नप्रकार निराकरण करनेका असफल प्रयत्न किया है
(१)"शंका ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का० अ० गाथा ३१९ के आधारसे जो हमने यह लिखा कि शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते है सो यह कषन शुभाशुभ फर्मके उदयके साथ जीबके उपकारकी बाह्य व्याप्तिको ध्यानमें रखकर ही किया गया है। इस जीवको कोई लक्ष्मी देता है या कोई उपकार करता है। यह प्रश्न है । इसी प्रश्नका समाधान गाथा ३१९ में करते हुए बतलाया है कि लोकमें इस जीबको न तो कोई लक्ष्मी देता है और न कोई उपकार करता है। किन्सु उपकार या अपकार जो भी कुछ होता है वह सब शुभाशुभ क्रमको निमित्तकर होता है"।-त. च० पृ० ३७ ।
(२) "यह आचार्य वचन है । इस द्वारा दो बातें स्पष्ट की गई हैं। पूर्वाधं द्वारा तो जो मनुष्य यह मानते हैं कि अमुक देवी देवता आदिसे मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगी या मेरी अमुक आपत्ति टल जायेगी उसोका