Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आधारपर भी द्रव्यकर्मदय संयारी आत्माके विकारभाव और पतुर्गतिभ्रमण में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त सिद्ध होता है । परन्तु उत्तरपक्षने इसका कोई उत्तर नहीं दिया । लगता है कि उसे यह भय है कि यदि केवलज्ञानावरण कर्मको केवलज्ञानके विकास में बाधक माना जाये तो उसका उदय सदा काल विद्य मान रहने के कारण कोई भी जोब कभी भी केवलज्ञानी नहीं बन सकेगा और इसीलिये वह युक्ति, अनुभव और लोकव्यवहारके विरुद्ध कथन करता है व आगमको अपने अभिप्राय के अनुकूल तोड़ मरोड़ करता है । उसने लिखा है कि "जय यह जीव केवलज्ञानके अभावरूपसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण द्रव्यकर्मका उदय उसमें निमिश होता है" और इसके आगे वह यह लिखता है कि "यदि ऐसा न माना जाये और पुदगल द्रव्यकी सर्वकाळ ग्रह शक्ति मानी जाये कि वह स्वभावका सर्वदा विनाश करने की सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीन केवलज्ञानी नहीं हो सकता" परन्तु वास्तविक बात यह है कि केवलज्ञानावरण कर्मकेो जीवके स्वभावभूत ज्ञानके अभाव में प्रेरकरूपसे कार्यकारी सहायक होनेपर भी तथा उसमें केवलज्ञानके विकासको न होने देनेकी सत्रमा सामर्थ्य विश्वमान रहनेपर भी जीव जब केवलज्ञानावरण कर्मके प्रतिकूल और केवलज्ञानके विकासके अनुकूल अपना सम्यग्दर्शन जान पारित्ररूप पुरषार्य करने लग जाता है तब केवलज्ञानावरण कर्मका अभाव होकर केवलज्ञानका विकास जीव में हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्म tatast अपना फल कर्मका सहयोग प्राप्त होनेपर ही दे सकता है । इसलिए यदि कर्मके प्रतिकूल नोकर्मका समागम जीवको प्राप्त हो जाता है तो कर्म अपना कार्य करने में अक्षम हो जाता है और इस तरह केवलज्ञानाधरण कर्मका अभाव हो जानेपर आत्माका फेवलज्ञान रूपभाग प्रकट हो जाता है तथा इसी प्रक्रियाको स्दीकार कर लेनेपर उत्तरपक्षके पूर्वोक्त भयका भी निराकरण हो सकता है । पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है. कि मिध्यादृष्टि अर्थात् प्रथम गुणस्वानवर्त्ती जीव अपने में मिध्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी अपने मानसिक, वाचनिक और कामिक पुरुषार्थ को बाह्य निमित्तसामग्री की अनुकूलताके आधारपर उस मिथ्यात्यकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके लिये कर सकता है। इससे निर्मात होता है कि केवलज्ञानावरण कर्मका सर्वदा उदय रहते हुए भी बाह्य नोकर्मोकी सहायता के आधारपर जीव उसके बिनाशका पुरुषार्थकर सकता है और ऐसा पुरुषार्थ करनेपर वह जीव केवलज्ञानावरण कर्मका सर्वथा क्षय करके के बन जाता है। इस तरह उत्तरपक्षक। ऐसा कथन करना संगत नहीं है कि जब यह जीव केवलज्ञानरूपसे नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरण कर्मका उदय सहज ही निमित्त होता है, क्योंकि इस प्रकार के कथनसे atasha रूपसे परिणमित न होने में केवलज्ञानावरण कर्मका उदय सहायक न होने रूपसे अर्किचित्कर सिद्ध होता है जो आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि आगमके आधारपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रेरक निमित्त और साथ ही अप्रेरक ( उदासीन) निमित्त दोनों उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही होते हैं. दोनोंमेंसे कोई भी निमित्त वहांवर अकिचित्कर नहीं होता । अतः ऐसा कथन करना ही आगमसम्मत है कि जीव में जब तक केवलज्ञानावरणकर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक उसके (जीव) केवलज्ञानस्वभावका जात होता रहता है। इसतरह केवलज्ञानावरण के उदयको वहांपर सहायक होने रूपसे कार्यकारिता हो सिद्ध होती है, ऑकचित्करता नहीं, और यही बात बार-बार आगमके आधारसे कही जा रही है। इसमें निणीत होता है कि केवलज्ञानावरणकर्मके उदय में होनेवाला केवलज्ञानका प्रातरूप कार्यकारिता काल्पनिक न होकर वास्तविक ही है। इतना जरूर है कि वह कार्यकारिता उपादानके कार्यके रूपमें न होकर उस कार्य में मात्र सहायक होने रूपसे ही उसमें रहती है। अतएव उसे निश्चयनयका विषय न माना जाकर व्यवहारनवका ही विषय माना गया है ।
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