Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ४ और उसका समाधान
तृतीय दौर में तच पु० ११ पर दृष्टिसे समयसार गाथा ३२ की टीकाके आधारपर आत्माको भाष्य और मोहकर्मको भाषक मान्य किया है ।
__ उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें समयसारको उक्त गाथा ३२ की टीकाके आशयके रूपमें यह कहा है कि "जब तक यह जीव मोहोदयके सम्पर्क में एकात्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाग्य कहा जाता है।" इससे उत्तरपक्षका यही अभिप्राय हो सकता है कि जीव द्वारा मोहकर्मके उदयका सम्पर्क करते हुए भी उससे अपनी एकत्वबुद्धि नहीं करने पर न तो मोहोदयको भावक कहा जा सकता है और न आत्माको भाव्य कहा जा सकता है। परन्तु उसका यह अभिप्राय असंगत है, क्योंकि जीवमें जन तक मिथ्यात्वकर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक उसमें अपनी एकत्वबुद्धिका अभाव हो पागर में नीच सागरिया दृष्टि बगः गहना है । ऐसी बात नहीं है कि वह इस अवसरपर भावसम्यग्दृष्टि हो जाता हो, क्योंकि वह भावसम्यग्दृष्टि तभी बन सकता है जब उसमें मिथ्यात्वकर्मक उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके रूपमें अभाव हो जाता है। इसलिये समयसार गाथा ३२ की टीकाका यही आशय ग्रहण करना उषित है कि एकत्वबद्धिके बने रहने या न बने रहनेपर भी जब तक यह जीव मोहोदयके सम्पर्कमें रहता है तब तक उसकी मोहरूप परिणति होती रहती है। अतः उस समय तक मोहोदयको भावक और आत्माको भाव्य स्वीकार करना संगत है । समसार गाथा १६१ में आचार्य दुदकुदने यही कहा है कि सम्यक्त्वको रोकनेवाला मिथ्यात्वकर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। अतः उसके उदय से जीवको मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए।
इस विवेचनसे यह स्पष्ट होता है कि मोहोदयका सम्पर्क रखते हुए जीव उक्त एकत्वबुद्धिको समाप्त तो कर सकता है, परन्तु यह नियम नहीं मान्य किया जा सकता है कि एकत्वबुद्धिके समाप्त होने मात्रसे जीवकी मोहरूप परिणतिका अभाव होकर भाव्य-भावक संफरदोषका परिहार हो ही जाता है । यह नियम न माननेका कारण यह है कि एकरवबुद्धिका त्याग व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है और वह धमवहारसम्यग्दर्शन मिथ्यात्वकर्मके उदयके आधारपर भावमिथ्यात्वरूपसे परिणत प्रथम गुणस्थानभर्ती अर्थात् भावमिष्याष्टि जीवके भी सम्भव है, क्योंकि एकत्वबुद्धि या एकत्व बुद्धिका त्याग दोनों जीवके मानसिक, अशुभ या शुभ पुरुषार्थ है तथा वे अशुभ और शुभ दोनों पुरुषार्थ भब्यमिथ्यादृष्टि जीवमें और यहाँ तक कि अभय मिश्यावृष्टि जीवमें भी आगम द्वारा स्वीकार किये गये हैं। इस तरह उस एकत्वबुझिम त्यागस्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन भध्यमिथ्यावृष्टि जीवमें जब प्रगट होता है तब जीव परपदार्थों में अपने मानसिक, वाचनिक और कायिक आत्म-पुरुषार्थ द्वारा ही अनासक्ति भावको मुदृढ़ करता हुआ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावको अपने अन्तःकरणमें विकसित कर लेता है तथा वह यदि भव्य है तो कदाचित अधःकरण, अपूर्वकरण और
१. सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिदि त्ति णाययो ।।१६१८-समयसार २. (क) राद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
___ धम्म भोगणिमित्तं ण टू सो कम्मलमणिमित्तं ॥२७५।।-समयसार (ख) यसमिदी गुप्तीओ सीलतवं जिणबरेहि पण्णत्तं ।
कुव्वतो वि अभववो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥२७३।।-समयसार