Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खामिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
किसी कार्यका उपादान नहीं बना सकता, अर्थात् प्रेरक निमित्त उपादान में अपना कलात्मक परिचत्र तो दे सकता है, परन्तु वह जड़को चेतन और चेतनको जड़ नहीं बना सकता है। प्रेरक निमित्त के स्वरूप और कार्यका विस्तारसे विवेचन पूर्वमें नही जा चुका है ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी कथन किया है कि 'जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोपासे युक्त होता है उतने अंशमें जीव में विभाव भाव होते हैं। सो इसमें विवाद नहीं है । परन्तु विवादकी बात तो यह है कि जीवमें पुरुषार्थहीनता अपने आप ही नहीं आ जाती हैं। उसकी उस पुरुषार्थहीनताका आधार नोकर्मभूत मन, वचन (मुख) और शरीरका प्रतिकूल होना है ।
उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें यह भी कथन किया है कि "यतः ये परके सम्पर्क में हुए हैं इसलिए इन्हें परभाव भी कहते हैं और ये आत्मा विभावरूप भाव होनेसे स्वभावभूत भावोस बहिर्भूत हैं इसलिए देव हैं। यदि इनमें इस जीवको हेय बुद्धि हो जाये तो परके सम्पर्क में हेय बुद्धि हो जाये यह तथ्य इस गाथा द्वारा सूचित किया गया है ।"
इस सम्बन्ध में हमारा कहना है कि समयसार गाया १९८ और १९९ से उत्तरपक्ष द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त तथ्य सूचित होता है या नहीं, यह तो अलग बात है । परन्तु उसने जो उपयुक्त कथन किया है वह हमें भी मान्य हैं । किन्तु उसने जो यह कहा है कि "स्पष्ट है कि यहां भी आत्माकी स्वतन्त्रताको बनाये रखा गया है" सो इससे वह आत्माकी जिसरूपमें स्वतन्त्रता बतलाना चाहता है वह संगत नही है, क्योंकि संसारी आत्मा परतन्त्र है, इस बातको ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है ।
कथन १३ और उसकी समीक्षा
(१३) उत्तरपक्षनेत० ० पृ० ३६ पर यह भी कथन किया है कि "समयसार गाथा २८१ में उक्त कथनसे भिन्न कोई दूसरी बात कही गई हो ऐसा नहीं समझना चाहिए। जिसको निमित्त कर जो भाव होता हूँ वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगम की परिपाटी है जो मात्र किस कार्य में कौन निमित्त है इसे सूपित करनेके अभिप्रायसे ही आगममें निर्दिष्ट की गई है। "
इस कथन के द्वारा उत्तरपक्षका अभिप्राय समयसार गाथा १९८ और १९९ के सम्बन्ध में उसके द्वारा किये गये विवेचनसे ज्ञात होता है। लेकिन उसका निराकरण पूर्व में किया जा चुका है। अतः यहाँपर उत्तरपक्ष द्वारा उसका संकेत किया जाना कोई महत्व नहीं रखता है। इसके अतिरिक्त इस कथन में उत्तरपक्षने यह भी कहा है कि "जिसको निमित्त कर जो भाव होता है वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगमकी परिपाटी है" इस सम्बन्ध में मेरा कहना है कि इस प्रकारके कथन की परिपाटी आगममें ही नहीं, लोकमें भी पाई जाती है | परन्तु यह निश्चित है कि ऐसी परिपाटी आगमकी 'या लोककी हो, दोनों ही कार्योत्पत्ति में निमित्तको सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही सिद्ध करती हैं । यतः उत्तरपक्ष निमित्तको कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानने के लिये तैयार नहीं हैं अतः उसके मतमें आगमकी उक्त परिपाटीकी संगति विठ लाना कदापि सम्भव नहीं है। उस रपक्षने अपने उक्त कथन में जो यह कहा है कि "किस कार्य का कौन निमित्त है इसे सूचित करनेके अभिप्रायसे ही उक्त परिपाटी आगम में निर्दिष्ट की गई है" सरे उसका ऐसा कहना भी निरर्थक और अविचारित है, क्योंकि जब वह कार्योत्पत्ति में निमित्तको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानके लिए तैयार नहीं है सो "कहाँ कौन निर्मित है" इसे सूचित करने की क्या आवश्यकता है?