Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
अनुसार कार्य यद्यपि उपादानगत स्वाभाविक योग्यताके अनुकूल ही हो जाते हैं परन्तु जब उसे निमित्त मिलते हैं तभी वे उन निमित्तोंके अनुसार उपादानगत उक्त योग्यताके अनुरूप होते हैं । कथन ८ और उसकी समीक्षा
(८) उत्तरपक्षने आगे चलकर त० च० पृ० ३५ के इसी अनुच्छेदमें वह कथन किया है कि-"जब विवक्षित ट्रम्य अपना कार्य करता है तब बाच सामनी उसमें यथायोग्य निमित्त होती है। परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका यहो अभिप्राय है। उसका यह फायन भी प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि यह स्पष्ट किया जा चुका है कि यद्यपि वही वस्तु विवक्षित कार्यरूप परिणत होती है जिसमें उस कार्यरूप परिणत होनेको स्वाभाविक योग्यता विद्यमान रहती है, परन्तु उसकी वह कार्यरूप परिणति अनुकुल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है, न मिलनेपर नहीं होती। निष्कर्ष यह कि विवक्षित वस्तुकी वही परिणति होती है जिसकी योग्यता उसमें विद्यमान रहते हुए अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग उसे प्राप्त होता है। इस तरह परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका जैसा अभिप्राय उत्तरपक्ष लेना चाहता है वह युक्त नहीं है। प्रत्युत पूर्वपक्षका अभिप्राय प्रमाणसंगत है और यही वस्तुस्थिति है। कथन ए और उसकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षनेत० प १० ३५ के हमी अनुच्छेदमें आगे लिखा है-'समसार गाथा २७८ १२७९ से भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाओंमें यद्यपि यह कहा गया है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि आप शुद्ध है वह लालिमा आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु वह अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा लालिमा आदि रूप परिणमाया जाता है उसी प्रकार ज्ञानी आप शुद्ध हैं वह राग आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है किन्तु वह राग आदि दोषों द्वारा रागी आदि किया जाता है। परन्तु इसका ठीक आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्रने "न जातु रागादि" इत्यादि कलश द्वारा किया है। इसमें पर पदार्थको निमित्त न बतला कर परके संगमें निमित्तता सूचित की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि आगममें जहाँ-जहाँ इस प्रकारका कथन आता है कि जीवको कर्म सुख-दुःख देते हैं, कर्म बड़े बलवान है. ये ही इसे नरक आदि दुर्गसियोंमें और देवादि सुगतियोंमें ले जाते हैं वहाँ-वहाँ उक्त कथनका यही अर्थ करना चाहिए कि जब तक जीव कर्मोदयकी संगति करता रहता है तब तक उसे संसार-परिभ्रमणका पात्र होना पड़ता है । कर्मोदय जीवके सुख-दुःख आदिमै निमित्त है, इसका आशय हत्तना ही है। परमात्मप्रकाश में इसी आशयको इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है कि यह जीव पंगुके समान है वह न कहीं जाता है और न आता है, कर्म लोकमें इसे ले जाता है और ले आता है आदि ।"
सप्तरपक्षके इस कथनके विषयमें पूर्वपक्षको अणुमात्र भी विवाद नहीं है, क्योंकि इसी मावायको ध्यानमें रखकर ही पूर्वपक्षने परमात्मप्रकाशके उक्त दोनों पद्योंको अपने वक्तव्यमें उद्धृत किया है। परन्तु जो बात विवादकी है उसको तो उत्तरपक्ष इतना लम्बा लिखने के पश्चात् भी अपनी दृष्टिसे ओडरल किये हुए है अर्थात उत्तरपक्ष स्फटिक मणिमें उत्पन्न हई लालिमामें लाल वस्तुको और उगीके समान जीवमें उत्पन्न होने वाले रागादि भावों में रागादि प्रध्यकर्मके उदयको निमित्त मानकर भी जब इन निमित्तोंको उक्त कार्यके प्रति सहायक न होने रूपसे अकिचिल्कर मान लेता है तो निमित्तौकी इस अकिंचित्करताका उत्तरपक्षके उपर्युक्त कथनके साथ करो मेल बैठ सकता है ? यह उत्तरपक्षको मोचना चाहिए। साथ ही तत्त्वजिज्ञासुओंको भी इसपर विचार करना चाहिए ।