Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कथन ३ और उसकी समीक्षा
(३) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे लिखा है-"अपरपक्षने परमात्मप्रकाशकी गाथा ६६ और ७८ को उपस्थितकर यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि जीवको सुख दुःख और नरक-निगोद आदि दुर्गति देने वाला कर्म ही है। आत्मा तो पंगके समान है। वह न कहीं जाता है और न आता है। तीन लोकमें इस जीवको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। शायद अपरपक्ष निमित्तकर्ताका यही अर्थ करता है और इसीको अपने प्रश्नका स्नर मानता है 1 किन्तु यह व्यवहारनयका वक्तव्य है इसे अपरपंक्ष भूल जाता है।"
इसकी समीक्षामें हम कहना चाहते है कि पूर्वपक्ष भी उसे उत्तरपक्षके समान व्यवहारनयका ही विषय मानता है, निश्चयनयका नहीं। दोनों पक्षों के मध्य जो विवाद है वह केवल इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष उसे व्यवहारनयका विषय कार्योत्पत्ति के प्रति सहायक न होनेके आधारपर अकिचित्करके रूपमें स्वीकार करता है वहां पूर्वपक्ष उसे अबहारनवका विषय कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होनेफे आधारपर कार्यकारीके रूपमें स्वीकार करता है। इनमें से पूर्वपक्षकी मान्यता तो आगमसम्मत है, उत्तरपक्षकी मान्यता
आगमसम्मत नहीं है । इसे भी पूर्वमं स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ४ और उसको समीक्षा
(४) उत्तरपक्षने वहीं आगे चलकर यह कथन किया है कि -"परका सम्पर्क करनेपर जोवकी कैसी गति होती है, यह इन वचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है"।
इसकी समीक्षामें मैं कहना चाहता है कि उत्तरपक्षके इस कथनमें विवाद नहीं है। परन्तु वह जब इस तरह के सम्पर्कको जीवके सुख-दुःख और नरक, निगोद आदि अवस्थाओंके होने में निमिसकारण मान लेता है तो फिर उसका उस परसम्पर्कको जीवकी उक्त अवस्थाओंके निर्माणमें सर्वथा अकिंचित्कर मानना असंगत हो जाता है, क्योंकि इस तरहसे तो कार्योत्पत्ति में परसम्पर्क सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी हो होता है, सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर बतलाना सिद्ध नहीं होता। इस तरह उत्तरपक्षके सामने यह एक गंभीर समस्या खड़ी रहती है । कथन ५ और उसकी समीक्षा
(५) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे यह कथन किया है कि-"यहां यह स्मरण रखने योग्य बात है कि परका सम्पर्क करना और न करना इसमें जीवकी स्वतन्त्रता है" |
इसकी समीक्षा भी मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षका यह कथन हमें भी मान्य है। परन्तु परका सम्पर्क करने में स्वतंत्र होते हुए भी जीव जब वक यथायोग्य मोह, राग और द्वेषके वशीभूत रहता है तब तक ही वह आसक्तिवश या अशक्तिवश या कर्तव्यवश परका सम्पर्क करता है और सुखी-दुःखी नरक, निगोद आदि अशुभ तथा शुभ मतियोंका पात्र बनता है। कथन ६ और उसकी समीक्षा
१६) आगे उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें यह दिखलानेका प्रयत्न किया है कि "सुख-दुःख और नरकनिगोद आदिका पर निमित्त न होकर परका सम्पर्क हो निमित्त होता है"। इसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह भी इस बातसे अपरिचित नहीं है कि कार्योत्पत्ति पर वस्तु तभी निमित्त होती है जब