Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
कुम्भकार व्यक्ति घटके मुरूप कर्तृत्वका अभाव है, क्योंकि जिस प्रकार मिट्टी पटरूप परिणत होती है उस प्रकार कुम्भकार घटरूप परिणत नहीं होता। दूसरे, मिट्टीसे निर्मित होनेवाले घटकी उत्पत्तिमें कुम्भकारको सहायता अपेक्षित रहा करती है, क्योंकि कुम्भकार व्यक्तिका सहयोग प्राप्त हुए बिना मिट्टी कदापि घटरूप परिणत नहीं होती है। अतः निमित्तका सदभाव भी वहां पाया जाता है और तीसरे, कुम्भकार द्वारा घटनिर्माणका प्रयोजन जलाहरण आदिके रूप में वहाँ निश्चित रहता है। अतः प्रयोजनका सद्भाव भी यहाँ स्वीकृत करने योग्य है। इस तरह मिट्टी में विद्यमान घटकर्तृत्वका कुम्भकार व्यक्ति में उपत तीन आधारोंसे भारोप होता है।
प्रकृतमें इसका समन्वय इस प्रकार होता है कि क्रोधादि विकारी भावोंका मुख्यकर्ता जीव होता है। परन्तु जीवमें वे क्रोधादि विकारी भाव द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त होने पर ही होते हैं, द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त हुए बिना नहीं होते । इसे आगमके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इस तरह जीवमें विद्यमान क्रोधादि विकारी भावोंके कर्तत्वका जो दृश्यकर्मके उदयमें आरोप आमममें प्रतिपादित किया गया है उसमें भी उपर्युक्त तीन आधारोंको स्वीकृत किया गया है अर्थात् एक तो द्रव्यकर्मोदवमें जीवके क्रोधादि विकारी भावोंके मुख्यकतत्त्वका अभाव है. क्योंकि जिस प्रकार जीव उन क्रोधादि विकारी भावोंके रूपमें परिणत होता है उस प्रकार उदयपर्यायविशिष्ट कर्म उन रूप परिणत नहीं होता । दूसरे, जीवमें होनेवाले क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें उदयपर्यायविशिष्ट व्यकर्मकी सहायता अपेक्षित रहा करती है, क्योंकि उसके सहयोगके बिना जीवकी क्रोधादि विकारीभाषरूप परिणति नहीं हो सकती है, अत: निमित्तका सद्भाव भी यहां विद्यमान है और तीसरे क्रोधादि विकारी भावोंके उत्पन्न होनेका प्रयोजम जीवका संसारपरिभ्रमण आदिके रूपमें यहाँ स्वीकृत करने योग्य है। इस तरह जीवके क्रोधादि विकारी भाबोंके कर्तुत्वका उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्ममें उक्त तीन आधारोंसे आरोप हो जाता है। इस विवेचनसे सहज ज्ञात हो जाता है कि जब आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः" वचनके आधारपर उत्तरपक्ष जीवमें उत्पन्न होने वाले कोधादि विकारी भावोंका आरोपित कर्ता या उपचरितकर्ता उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको स्वीकार करनेके लिए तैयार है तो उसे उस पर्यापविशिष्ट व्यकर्मको उस उपचरित या बारोपित कर्तत्वकी प्रसिद्धिके लिए जीवके क्रोधादि विकारी भावोंको उत्पत्ति में सहायक होने रूपरो कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है । यतः उत्तरपक्ष द्रव्यकर्मोदयको जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि वह तो उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अफिषिकर निमित्तकारण मानता है, अतः उसके मतानुसार जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्ति में द्रव्यकर्म के उदयको उपचरित या आरोपित कर्ता मानना किसी भी प्रकार संभव नहीं है प्रकृतमें पूर्वपक्ष द्वारा उद्धृत "सदकारणवन्नित्यम्" वचनका प्रयोजन
__ पूर्वपक्षने अपने सूतीस दोरम प्रसंगवा जो भाप्तपरीक्षा का रिकाकी टीकाके उपर्युवत वचनको उद्धृत किया है उसका प्रयोजन मात्र इतना है कि जो सत् हो और जिसका कोई कारण न हो उसे न्याय दर्शनमें नित्य माना गया है और यतः उत्तरपक्ष जीवमें विद्यमान कोषादि विकारी भावोंके सदभावको व्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने माप ही मान लेना चाहता है अतः उसके अकारण हो जानेसे जीवमें उनके सद्भावको उपयोगके समान सार्यकालिक माननेका प्रसंग आता है को उत्तरपदाको भी अभीष्ट नहीं है ।
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