Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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४.
अयपुर (खानिया) तत्त्ववर्षा और उसकी समीक्षा
उत्पत्तिमें निमित्त बतलाना या कहना सही जैन सिद्धान्त है। उसे तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना मा उसकी अन्यया व्याख्या करना जैन सिद्धान्त नहीं है। अपने-अपने विषय-निरूपणमें भ्याथिक और पर्यायाधिक नयों की तरह निश्चय और व्यवहारनय दोनों रामान है । इसे उत्तर पक्ष भी जानता है। किन्तु पक्षाग्रहवश बह लीपा-पोती करनेको श्रेष्टा करता है। उत्तरपक्षका अनुपयोगी वक्तव्य
उत्तर पक्षने तत्त्वानुशासन' पद्य २९ को उद्धृत कर एक ऐसे विषयको छेड़ा है, जिसकी प्रकृतमें जरा भी उपयोगिता नहीं है । उसने लिखा है कि "जिस व्यके उसी दव्यमें कर्ता और कर्म आदिको विषय करनेवाला निश्चयलय है तथा विविध द्रव्यों में एक-दूसरेके कर्ता और कर्म आदिको विषय करनेवाला व्यवहारमय है। इसके विषयों पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। पर प्रश्नके उत्तरमें इसको उपयोगिता क्या है? इसे उसने नहीं सोचा। उत्तरपक्षके एक अन्य वक्तव्य और उसपर विमर्श
___ उत्तर पक्षने उपर्युक्त बक्तब्धके आगे लिखा है कि "यहाँ विविध द्रव्यों में एक-दूसरेके कर्ता आदि धर्मोको ब्यबहारनवसे स्वीकार किया गया है सो वह कथन तभी बन सकता है जब एकके धर्मको दूसरेमें आरोपित किया जाये । इसीको अग़द्भूत अवहार कहते हैं । इस तथ्यको विशद रूपमें समझने के लिए आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः"-अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना असद्भूत व्यवहार है इत्यादि वचन पर दृष्टिपात कीजिए।"
इस विषयमें भी पूर्वपक्षका उत्तरपक्षके साथ कोई मतभेद नहीं है । केवल यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक वस्तुके धर्म का दूसरी वस्तुमें समारोपण करनेके लिये आलापपद्धतिमें ही तीन आधार स्वीकार किये गये हैं अर्थात् जहाँ मुख्यरूपताका अभाव, निमित्तका सद्भाव और प्रयोजनका भी सद्भाव हो वहीं उपचार (समारोप) की प्रवृत्ति होती है।
इस सम्बन्धमें एक उदाहरण यह है कि लोकमें मत्तिकाके रूपमें विद्यमान घटमें जो धृतरूपताका आरोप किया जाता है उसमें यह बारोप इन आधारोंपर किया जाता है कि एक तो चटका घृतरूप होना सम्भव नहीं होनेसे मुख्यरूपताका अभाव यहां विद्यमान है। दूसरे, घट और घृतमें संयोगसम्बन्धाषित
आधाराधेयभावके विद्यमान रहने से निमित्तका सद्भाव भी यहाँ विद्यमान है और तीसरे, घटमें घृत रखने या उसमेंसे घृत निकालन रूप प्रयोजनका सद्भाव यहाँ विद्यमान है । इस तरह मिट्टीके रूपमें विद्यमान घटमें उक्त तीनों आवारोंपर घृतरूपताका आरोप संभव हो जाता है ।
इस संबंधमें दूसरा उदाहरण यह दिया जा सकता है कि लोकमें मिट्टी में विद्यमान घटकर्तृत्वका जो कुम्भकार व्यक्तिमें आरोप किया जाता है उसमें भी यह आरोप इन आधारोंपर किया जाता है कि एक तो
१. अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो मसः । ____ व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः ।।-त० शा० । २. त० च०१० २३ । ३. देस्त्रो त० न० पृ० ३४ । ४. मुख्याभाषे सति निमित्त प्रयोजने च उपधारः प्रवर्तते । आलापपद्धति ।