Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं। आगमका भी यही अभिप्राय है।' इसे क्या कहा जाय | उत्तरपक्ष कहीं भी स्थिर नहीं रहता और न यह देखता है कि मेरा कथन पूर्वापर विरुद्ध तथा असंगत है। खेद यह है कि वह आगमको दोनों ओर घसीट कर उसकी दुर्दशा कर रहा है । जब बह प्रतिपादन करता है कि हम द्रव्यकोंको जीवके क्रोधादि भावोंकी उत्पत्ति में निमित्त होनेका निषेध नहीं करते और आगम भी ऐसा नहीं है। दूसरी ओर वह यह भी कहता जाता है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र होकर जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं ।' तो उत्तर पक्षके कौनसे कथनको प्रमाण और संगत माना जाय । पाठक स्वयं निर्णय करें।
पदि उत्तर पक्षका यह अभिप्राय है कि जीवमें जो क्रोधादि बिकारी विभाष उत्पन्न होते हैं वे यद्यपि व्यकर्मोदयकी सहामोते ई, मिा लाभकार नहीं होता, क्योंकि वे द्रव्यकर्मोदयरूप न होकर जीयरूप ही होते हैं, तो यह पूर्वपक्षको अस्वीकार नहीं है, ऋयोंकि इस तरह जीवके क्रोधादि विकारी भावोंके उत्पन्न होने में द्रव्यकर्मोदयकी सहकारिता एवं कार्यकारिता स्पष्ट स्वीकार कर ली जाती है। परन्तु उसके इस प्रथम वक्तव्यका उसीके अगले द्वितीय वक्तव्यके साथ विरोध है, क्योंकि द्वितीय वक्तव्यमें उसने यह प्रकट किया है कि व्यकर्मोदयकी जीवके क्रोधादि विकारी भावरूप परिणत होनेमें उपादान जीवके साथ कालप्रत्यासत्ति मात्र होनेसे वह उसमें सहायक न होने के कारण अकिंचित्कर निमित्त कारण है। ये दोनों कथन कितने विसंगत है, यह भी उत्तर पक्षको देखना चाहिए । केवल बुद्धिकौशलका प्रकट करना या शास्त्रार्थ के लटकोंका माश्रय लेना ही अभीष्ट नहीं होना चाहिए । तत्त्वनिर्णयका प्रयोजन मुख्य होना चाहिए, इसी उद्देश्यसे तत्त्वचर्चाकी योजना बनाई गयी थी।
दूसरा वक्तव्य जहां पहले वक्तव्यसे विरुद्ध है वहाँ वह घुमावदार भी है। जीवके क्रोधादि भावरूप परिणामोंकी उत्पत्तिमें क्रोधादि द्रम्पकर्मके उदयकी नियमसे कालप्रत्यासत्तिको स्वीकार कर क्या उत्तरपक्ष
मर्मको निमित्त कारण अमान्य कर सकता है और जब वह लगे हाथ उसी के साथ यह भी कह रहा है कि 'इसलिए व्यवहारमयसे क्रोधादि कषायके उदयको निमित्त कर क्रोधादि भाव हुए ऐसा कहा जाता है।' कैसी विडम्बना है कि वह क्रोधादि कषायके उदयको निमित्त कर होनेवाले क्रोधादि भावोंको मान रहा है और उपादानके साथ निमित्तोंकी कालप्रत्यासत्ति को भी अंगीकार कर रहा है, फिर भी निमित्तोंको इस महान देन (सार्थकता-उपादान निमित्तोंके सदभाव कालमें ही कार्यकारी होता है, अन्य कालमें नहीं)अन्वय-व्यतिरेकसे सिद्ध निमित्तोंकी अनिवार्य सहायकता कार्यकारिताको स्वीकार करनेसे वह कतरा रहा है। उक्त रूपसे कथन करनेपर उत्तरपक्ष निमित्तोंको अकिचिकर कहनेका साहस कर ही नहीं सकता है।
रही व्यवहारनपसे क्रोधादिकषायके उदयको निमित्त मानने की बात । सो उसे पूर्वपक्ष मी स्वीकार करता है। परन्तु व्यवहारमय कल्पित या मिथ्या नहीं है । यदि उसे कल्पित वा मिथ्या माना जाय तो उसका विषय भी कल्पित या मिथ्या हो जायगा । वह मिथ्या या कल्पित तभी हो सकता है जब निश्चयनय और उसके विषयका यह तिरस्कार या निषेध करे। अतः परस्पर सापेक्ष द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी भांति निश्चयनय तथा व्यवहारनयको भी परस्पर सापेक्ष स्वीकार करनेपर ही उनमें सम्यकनयपना माना गया है। अन्यथा वे दुर्नय कहे जायेंगे । व्यवहारमय अपने विषयको सही रूपमें निश्चयनयकी तरह ही जानता-ग्रहण करता है । अतः वह सम्पनप है और उस नयसे क्रोधादिकषायके उदयको जीवके क्रोषादि विकारी भाषोंकी