Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
आगममान्यता है कि सभी कार्योको उत्पलिमें उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त ये तीनों कारण अनिवार्य है, जैसा कि हम अनेक जगह पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । वस्तुका परिणाम वस्तुसे ही उत्पन्न होगा, वस्तुसे अतिरिक्तसे वह कदापि उत्पन्न नहीं होगा, ऐसा जत्र कथन किया जाता है तो उससे वक्ताका यही अभिप्राय होता है कि वह उपादानकी अपेक्षा कथन कर रहा है, बाह्य कारणों (प्रेरक व उदासीन निमित्तों) को सहकारिताका वह निषेध नहीं करता। कर भी कसे सकता है। अन्यथा वस्तुकी अनेकान्तात्मकता, जो उसका प्राण है, लुप्त हो जावेगी । जयधवलाकारका उक्त वचन द्वारा उपादानपर बल देनेका अभिप्राय है-वस्तुके परिणमनमें दस्त ही उपादान होती है, क्योंकि वही उस रूप परिणत होती है, बाह्य कारण नहीं, अतः उपादानकी दृष्टि से वस्तुके परिणमनमें वस्तु को हो अपेक्षा होगी, बाह्य कारणोंकी नहीं । अतएव वस्तुपरिणमनको बाह्यनिरपेक्ष कहा जाता है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह उनके अभावमें भी हो जाता है। यह तो जैनदर्शनका सिद्धान्त है, जिसे उत्तर पक्ष भी अस्वीकार नहीं कर सकता । जयधवलाके उक्त वचनको नयविषक्षानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। उसकी विवक्षा, सन्दर्भ और गहराईकी ओर भी ध्यान रहना चाहिए ।
इसका निष्कर्ष यह है कि पूर्वपक्ष जयत्रबलाके उक्त कथनस सहमत है तथा उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उसका अर्थ भी उसे मान्य है। इसके अलाया लस्तरपक्षके इस मतसे भी वह इंकार नहीं करता कि क्रोधादि विकारी भावोंका कर्ता जीव ही होता है, क्योंकि उक्त विकारी भावरूप परिणति जीवकी ही होती है, द्रव्यकर्मकी नहीं। इसके साथ ही पूर्वपक्ष उत्तरपक्षके इस कथनको भी मानता है कि क्रोधादि विकारी भावरूप परिणति जीवकी अपनी ही परिणति होनेके कारण वह परनिरपेक्ष है। परन्तु परनिरपेक्षता या बाह्यकारण निरपेक्षताका वह अर्थ नहीं है कि उस परिणतिमें परकी-बाह्यकारणोंकी सहावकता नहीं हैवे उसमें अवश्य सहायक हैं और सहायकके रूपमें उनका सदभाव वहाँ होनसे वे अकिचित्कर नहीं है । यदि उपादान जीयके साथ प्रेरक और उदासीन निमित्त (बाहाकारण--द्रव्यकर्मोदय) न हो तो त्रिकालमें भी अकेले जीवसे क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। अन्यथा मुक्त जीवों में भी उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आवेगा।
अब रह जाता है प्रवचनसार गाथा १६९ की अमतचन्द्रीय टीकामें आगत 'रवयं' शब्दके अर्थका बिचार । उसके अर्थ और अभिप्रायके सम्बन्धमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंमें विवाद केवल इस बातका है कि जीवके क्रोधादि बिकारी भादोंको उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय सहायक होनेरूपसे कार्यकारी निमित्त है अथवा वह उसमें सहावक न होने रूपसे अकिचित्र निमित्त है 1 इसी बातका यहाँ निर्णय अभीष्ट है। उक्त विवादपर सूक्ष्म विमर्श और सिद्धान्तका निर्णय
यहाँ उक्त विषय पर सूक्ष्म विमर्श किया जाता है। कोआदिविकारगान जीवमें उत्पन्न होते है और इसलिए जीथ उनका उपादान कारण है। इसे दोनों पक्ष स्वीकार करते है। यह भी दोनों स्वीकार करते है कि वे तभी होते हैं जब द्रव्यवर्मका उदय होता है। अब विचारणीय पह है कि वे क्रोधादि विकारीभाव जीवमें ट्रध्यकमके उदय होनेपर होते हैं और लक्ष्य न होनेपर नहीं होते, तो 'अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि कार्यकारणभावः' इस सामान्य कार्यकारणभाव सिद्धान्तके अनुसार द्रव्यकर्मके उदयको क्रोधादि विकारभावोंका सहायक कारण--निमित्तकारण क्यों नहीं माना जाय और क्रोधादिविकारको उसका नैमिसिक कार्य क्यों स्वीकार न किया जाय? जब क्रोधादि विकारभाव अकेले जीवके न होकर द्रव्यकर्म के उदयके सदभावमें