Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
जयपुर ग्लानिया टलपी और उम्की समीक्षा होनेसे वे उसके भी कार्य है तो द्राकर्मोदयको उनका सहायक कार्यकारी निमित्त मानना अनिवार्य है... उसका अपलाप नहीं किया जा सकता है है। यह भी सश्य है, जिसे उभयपक्ष निर्विवाद मानते है कि जीद उन क्रोधादि विकारीभावोंका उपादाम है और उपादान एक ही होता है, जबकि निमित्त (सहायक कारण) अनगिनत होते हैं और वे क्रोधादि विकारी भावोंके उपादान नहीं होते । ऐसी वस्तुस्थितिमें द्रव्यकर्मोदयको सहायक न होने और इसलिए उसे अकिंचित्कर होनेका कथन कैसे कोई कर सकता है। यह अन्तस्से विचारना चाहिए । हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष पूर्वाग्रहके वशीभूत होकर दव्यकर्मोदयको क्रोधादि विकारीभावों का सहायक निमित्त नहीं मानता और उसे अकिचिकर कहता है। जबकि अन्बय और व्यतिरेकसे उसमें सहायक कारणता सिद्ध होती है । न्यायशास्त्रका ही नहीं, दर्शनशास्त्र और अध्यात्मशास्त्रका भो सिद्धान्त है कि कोई भी कार्य हो, वह बाह्य (निमित्त) और इतर (आभ्यन्तर-उपादान) दोनोंकी समग्रतासे निष्पन्न होता है। अतः क्रोधादिविकार मात्र एक (उपादान) कारण जम्प नहीं है, अपितू उभव (उपादान और निमित्त दोनों कारण जन्य है। इससे स्पष्ट है कि निमित्तकारण सहायक कारण है और वह कार्यकारी (क्रोधादि भावोंकी नैमित्तिक जन्यताको उत्पन्न करनेवाला) होनेसे कदापि अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता।
इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि जयश्वलाका उक्त बचन उत्तर पक्षकी मान्यता (कोषादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय सहायक न होनेसे अकिंचित्कर निमित्त है, इस मत) का पोषक नहीं है । अतः उसे प्रस्तुत करना व्यर्थ है--उत्तर पक्षकी मात्र असफल चेष्टा है। उत्तरपक्षके विरोधी वक्तव्योंपर विचार
(१) उत्तर पक्षने प्रकृत विषयमें परस्पर विरुद्ध कथन करते हुए लिखा है कि 'क्रोधादि द्रव्यकोको निर्मित किये बिना क्रोवारि भाव होते हैं, ऐसा हमारा कहना नहीं है और न ऐसा आगम ही है । हमारा कहना यह है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतंत्र होकर जीव उत्पन्न करता है, क्रोधादि कर्म नहीं । आगमका भी यही अभिप्राय है।"
(२) एक अन्य जगहपर उसने लिखा है कि "जिस-जिस समय' जीव क्रोधादि भावरूपसे परिणमता है उस-उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी नियमसे काल-प्रत्यासत्ति होती है, इसलिए व्यवहारनयसे क्रोधादिकषायके उदयको निमित्त कर क्रोधाधि भाव हए, ऐसा कहा जाता है।"
उत्तरपक्षके ये दो वक्तव्य है, जो स्पष्टतया परस्पर विरुद्ध हैं। पहले वक्तव्य में, पूर्वपक्ष द्वारा निमित्त कारणोंकी कायोत्पत्तिमै अनिवार्यता सिद्ध कर देनेपर, अब यह कहता है कि 'क्रोधादि द्रव्यकर्मोफो निमित्त किये बिना क्रोधादि भाव होते हैं, ऐसा हमारा कहना नहीं है और न ऐसा आगम ही है।' ऐसा कहकर उत्तरपक्ष असन्दिग्ध रूपमें जीवके क्रोधादि विकारी भावोंकी उत्पत्तिम क्रोधादि व्यकर्मोकी निमित्तकारणताको स्वीकार कर लेता है और आगमको भी उसका, समर्थक बतलाता है। उसके इस स्वीकारमें केवल अन्तर यही है कि सीधी नाक न पकड़ कर द्राविडी प्राणायामसे उसे पकड़ता है। अथवा अन्ध सपके विलप्रवेश न्याय (अन्धा रार्प बिलमें सीधे न घुस कर उसके चक्कर लगा कर घुसता है) का वह अनुसरण करता है। माश्चर्य यह कि वह यह भी दोहराता जाता है कि 'हमारा कहना यह है कि क्रोधादि
१. त० प. पू. ३३ । २. वही, पृ० ३३ ।