Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका ४ और उसका समाधान
१५७
अपर पक्षका कहमा है कि 'चौथे, पांचवें और छठं गुणस्थानवाले जीवों का लक्ष्य मुख्यतया बाह्य पुरुषार्थ पर रहना आवश्यक है। किन्तु सा विधान करते हुए अपर पक्षने यहाँ बाह्य पुरुषार्थरो अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ लिया है या धर्मपहषा लिया है. यह उक्त कथनसे शात न हो सका। जो कुछ भी हो,
पक्षका यह कंचन है आगमविरुजु हो, क्योंकि अविरतसम्यग्दष्टि और श्रावक जो भी बाह्य क्रिया करता है वह हेयबुद्धिसे ही करता है, अन्यथा वह अविरतसभ्यग्दृष्टि और श्रादक कहलानेका पात्र नहीं । समयसार निर्जराधिकारमें ऐसे जीवोंकी बाह्य परिणतिको तीन दृष्टान्ती द्वारा स्पष्ट किया गया है-पहला उदाहरण विष खानेवाले वद्य का दिया है, दूसरा उदाहरण अरतिभावसे मद्यपीनेवालेका दिया है और तीसरा उदाहरण पर घरमें प्रकरणचेष्टा करनेवाले का दिया है। सागारधर्माभूतमें कोतवालके द्वारा पकड़े गये चोरके सभाम सम्यग्दृष्टिको बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि उक्त जीवोंके व्यवहार धर्मको करते हुए भी अन्तरंगमें मुख्यता निश्चयधर्मकी ही रहती है 1 सागारध मतके मंगलाचरणका 'तमरागिणाम्' पद विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है। नीची पदवी में रहना यह न तो राम्यग्दृष्टिको ही इष्ट होता है और न श्रावकको ही । अब रही मुनिकी बात, सो उसके तो संज्वलन कषायजन्य अल्प प्रमादके कालमें ही अन्तर्मुहूर्त कालके लिए बाह्य प्रवृत्ति देखी जाती है। उनकी जो सामायिक आदि षक्रियाएँ होती है ये नियमसे सामायिक पूर्वक ही होती है । इसीसे उन्हें निश्चम षट् क्रिया संज्ञा मूलाचारमें दी गई है। मूलाचार प्रथम भाग गा० ३ को टोका में लिखा है
आवश्यककर्तव्यानि आवश्यकानि निश्चयक्रियाः सर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थनियमाः । इससे स्पष्ट है कि बाह्य क्रिया करते हुए भी मुनिक जीवनमें निश्चयधर्म गौण हो ही नहीं सकता।
अपर पक्षने यहाँ पर अपने विचारोंकी पुष्टिमें समयसार गाथा १२ का उपयोग किया है । किन्तु उस गाथाफा आशम ही दूसरा है। इसका स्पष्ट खुलासा घोहे हो पहले हम कर आये हैं । अपर पक्षने इसका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं यह उक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है।
___ अपर पक्षका यह लिखना भी आगम विरुद्ध है कि व्यवहारधर्मका सद्भाव निश्चयधर्मके अभावमें भी पाया जाता है, क्योंकि जैसे सम्यग्दर्शनके पूर्व जितना भी ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान माना गया है इसो प्रकार निश्च यधर्मके पूर्व जितनी भी क्रिया होती है वह यथार्थ नहीं मानी गई है। निश्चयधर्मके साथ होनेबाली पुण्यपरिणतिरूप बाह्य क्रियाको ही आगममें व्यवहार धर्म कहा है, अन्यथा अट्ठाईस मूलगुण रूप द्रव्यलिंगको आगममें निन्दा नहीं की गई होती। इससे स्पष्ट है कि निश्च यधर्मके पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं । जो होता है वह उस पदका व्यवहारधर्म नहीं । अन्तरंगमें अनन्तानुबन्धी आदिका उदय बना रहे और कोई जीव मन्दकषाय वश बाह्य क्रिया करने लगे, फिर भी वह निश्च यधर्मके कालमें होनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि आदि पदका व्यवहारधर्म कहलाये यह विचित्र बाल हैं । निमित्त-नैमित्तिक योग एक कालमें होता है। पहले निमित्त या और बादमें नैमित्तिक हुआ ऐसा कार्यकारणभाव नहीं है । हाँ अपर पक्ष अपने विधान द्वारा यह स्वीकार करना चाहता है कि निश्चयवर्मकी प्राप्तिके पूर्व जो क्रिया होती थी वह निश्चयधर्मको प्राप्तिके कालमें व्यवहारधर्म संज्ञाको प्राप्त हो जाती है, तो बात दूसरी है। किन्तु अपर पक्ष उससे जो यह अर्थ फलित करना चाहता है कि पहलेकी क्रियाके कारण निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती है वह गलत कौन कार्य किस क्रमसे होता है इसका कथन करना अन्य बात है और निमित्त-नैमित्तिकपनेके आधारपर कार्य-कारणका विचार करमा अन्य बात है।