Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
यहां पूर्वपक्ष उसे वहांपर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादानकारषभूत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी मानता है ।
२, यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृप्त कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर मथार्थकारण और मुख्य कत्ता मानते हैं, परन्तु जहां उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर अयथार्थकारण और उपचरितकर्ता मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे वहांपर उस कार्यरूप परिणत न होनेके सा उपा कारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर अयथार्थ कारण और उपचरितकर्ता मानता है।
३. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादान कारण, यथार्थकारण और मुल्यका रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधार पर भूतार्थ मानते है, परन्तु जहाँ उत्तर पक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, अयथार्थकारण और उपचरित का रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिम सहायक भी न होने के आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे वहां पर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानता है।
४. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्य प्रति उपादानकारण, यथार्थकारण और मुख्य का रूपसे स्वीकृत संसारी आरमाको उस कार्य रूप परिणत होनेके आधारपर भतार्थ मानकर निश्चयनयका विषय मानते है, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, यथार्थकारण और उपचरित कर्ता रूप से स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको उस कार्य रूप परिणत न होने और सारी आत्माकी उस कार्य स्प परिणतिमें सहायक भी न होने के आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्य और संसारी आत्माको उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर भूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है ।
___उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गत्तिभ्रमणरूप कार्य के प्रति दोनों पक्षोंके मध्म न तो संसारी आरमाको उपादान कारण, यथार्थकारण और मुख्य का माननेफे निषयमें विवाद है और न उसकी कार्यकारिता, भतार्थता और निष्चयनय विषयताके विषय में विवाद है। इसी तरह उसी कार्य प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको निमित्त कारण, अयथार्थ कारण और उपचरितका माननेके विषयमें विवाद है और न उसको व्यवहारनयविषयताके विषयमें विवाव है। दोनों पक्षोंके मध्य विषाव केवल उक्त कार्यके प्रति उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको उत्तरपक्षको मान्य सर्वथा अकिचिस्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्व पक्षको मान्य कथंचित् अकिचित्करता व कथंचित कार्यकारिता तथा कथंचित् अभूतार्थता व कथंचित् भूतार्थताके विषयमें है। उपर्युक्त विवेचनके आधार पर दो विचारणीय बातें
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर दो बातें विचारणीय हो जाती हैं। एक तो यह कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्षों द्वारा निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदएपर्यायविशिष्ट ब्रम्यकर्म