Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वर्चा और उसकी समीक्षा रूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता) विद्यमान रहती है उस वस्तुको ही उस कार्यरूप परिणति हो सकती है और जिस वस्तुमें जिस कार्यको उपादानशक्ति (कार्यरडा परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता) का अभाव रहता है उस वस्तुकी उस कार्यरूप परिणति त्रिकालमें कभी नहीं हो सकती है।
दूसरा कार्य-कारणभाय निमित्त-नैमित्तिकावरूप होता है जो निमित्तकारण और नैमित्तिक कार्य में पाया जाता है। इस निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभावकी नियामक भी निमित्त और नैमित्तिक कार्य में विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक न्याप्तियां होती है ।
परीक्षामुख सूत्र ३-६३ की प्रमेय-रत्नमाला टीकाका जो उद्धरण आर दिया गया है उसमें जो "कुलालस्येव कलशं प्रति" के रूपमें दृष्टान्तपरक-कथन है जरासे अवगत होता है कि उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके समान निमित्त नैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव भी होता है जिसकी उपयोगिता कायोत्पत्तिमें हुआ करती है । अर्थात् उपादान कारण जो अपनी कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताके आधारपर कार्यरूप परिणत होता है वह निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए जिस प्रकार कार्योत्पत्तिके प्रति पर बतलाये गये प्रकारकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां उपादान कारण और उपादेय कार्य में स्वीकृत की गई है उसी प्रार उसी कार्योत्पत्ति के प्रति निमित्तकारण और नैमित्त कार्य में भी अम्पय
और व्यतिरेक व्याप्तियां स्वीकार की गई है । इतना अवश्य है कि आगममें निमित्तकारण दो प्रकारके बतलाये गये है। एक प्रेरक निमित्तकारण और दूसरा अप्रेरक (उदासीन) निमित्तकारण । इन दोनों निमित्तकारणों की कार्यके प्रति अन्धय और व्यतिरेक व्याप्तियां भी आगमगे पृथक्-पृथक रूपमें निस्चित की गई हैं। अर्यात निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही उपादान कारण कार्यरूप परिणत होता है और जब तक उनका सहयोग उपादानकारणको प्राप्त नहीं होता तब तक वह कार्योत्पत्ति की स्वाभाविक योग्यताके सद्भावमें भी कार्यरूप परिणत होने में असमर्थ ही बना रहता है। ये कार्य के प्रति प्रेरक निमित्तकारणों में विद्यमान अन्दय और व्यतिरेक व्याप्तिया है। इसी प्रकार जब उपादानकारण कार्यरूप परिणत होता है तब निमित्त भी उसे अपना सहयोग प्रदान किया करते हैं और जब तक उपादान कार्यरुप परिणत होने के लिए उद्यत नहीं होता तब तक वे निमित्त भी अपनी तटस्थस्थितिमें बने रहते हैं। ये कार्यके प्रति अप्रेरक (उदासीन) निमित्तोंमें विद्यमान अम्बय और व्यतिरेक व्याप्तियां हैं। इसप्रकार यह प्रेरक और अप्रेरक अर्थात उदासोन दोनों निमित्तोंकी कार्यके प्रति अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका स्पष्टीकरण है।
तात्पर्य यह फि जैनागममें कार्योत्पत्तिको व्यवस्था इस प्रकार स्त्रीवुत की गई है कि उपादान (कार्यरूपपरिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पदार्थ) तो कार्यरूप परिणत होता है, परन्तु यह तभी कार्य रूप परिणत होता है जब उमे प्रेरक और अप्रेरक (उदारीन) निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हो जाता है। उसको प्रेरक निमित्तोंका सहयोग प्रेरकताके रूप में और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तोंका सहयोग अप्रेरकता (उदासीनता) के रूप में मिला करता है । इस तरह उपादान कारण, प्रेरक निमित्तकारण और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तकारण इन तीनोंके रूपमें कारणराामग्रीफे मिलने पर ही कार्यात्पत्ति (उपादानकी कार्यरूप परिणति) होती है।
तीनों कारणोंमें जो कार्वोत्पत्तिके प्रति पूर्वोक्त प्रकारसे पृथक्-पृथक् अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती है उनमें उपादान कारण में जो कार्य के प्रति मन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां पायी माती हैं उन्हें अन्तानि नाम दिया गया है, क्योंकि उपादान कार्यरूप परिणत होता है। इसके अतिरिक्त