Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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निमित्तकी सर्वथा अकिंचित्करताकी मान्यताका अन्त हो जाता है। तीसरे, उत्तरपक्ष की यह मान्यता भी निरस्त हो जाती है कि जब वस्तु कार्यकालकी मोग्मता प्रगट होती है तो नियमसे विवक्षित कार्यकी हो उत्पत्ति होती है ।
इस तरह कार्योत्पत्तिके विषय में यही नियम निश्चित होता है कि वस्तुमें कार्योत्पत्ति के अनुकूल स्वाभाविक योग्यता विद्यमान हो तथा अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सद्भाव व बाधक कारणोंका अभाव हो तभी विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति होगी, अन्यथा उसी कार्यकी उत्पत्ति होगी, जिसके अनुकूल वहाँ उक्त सभी साधन सामग्रीका समागम होगा ।
द्वितीय भागकी समीक्षा
पूर्वपने अपनी द्वितीय प्रतिशंका (त० च० पृ० ५ ) में निम्नलिखित कथन किया है-
'इसके आगे आपने जो पंचास्तिकायको गाथा ८९ का उद्धरण दिया है वह भी हमारे प्रश्नसे संगत नहीं है, क्योंकि यह उद्धरण उदासीन निमित्त कारणसे सम्बन्धित है । साथ ही स्वयं अमृतचन्द्र सूरिने उसी पंचास्तिकायकी ८७ और ९४ वीं गाथाकी टीका में उदासीन निमितको भी अनिवार्य निमित्त कारण बतलाया है ।'
उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमें इसपर विचार करते हुए त० च० पृ० ९ में द्वितीय भाग के अन्तर्गत लिखा है
"पंचास्तिकाय गाथा ८९ में निःसन्देह रूपसे उदासीन निभिप्तकी व्यवहार हेतुता सिद्ध की गयी है । पर इतने मात्र से क्रियाके द्वारा निमित्त होनेवाले निमितोंको व्यवहार हेतु मानने में कोई बाधा नहीं भाती, क्योंकि अभी पूर्व में इष्टोपदेश टीकाका जो उद्धरण दे आये हैं उसमें स्पष्ट रूपसे ऐसे निमित्तोंको व्यवहारहेतु बतलाकर इस दृष्टिसे दोनों में समानता सिद्ध की गयी है ।"
उत्तरपक्षके इस उत्तरवक्ताको यहाँ समीक्षा की जाती है
पूर्व से यह कहाँ सिद्ध होता है कि वह प्रेरक निमित्तको व्यवहारहेतु नहीं मानता है। वह भी उत्तरपक्षकी तरह प्रेरक और उदासीन दोनों निमितोंको व्यवहारहेतु मानता है । परन्तु प्रश्न प्रेरक और उदासीन निमित्तोंको व्यवहारहेतु मानने, न माननेके विषय में नहीं है। अपितु प्रश्न यह है कि व्यवहारहेतु होते हुए भी प्रेरक निमित्तको कार्योत्पत्ति में उपादानका सहायक होने रूपमें कार्यकारी माना जाय या उसे वहाँ सर्वथा अक्किचित्कर स्वीकार किया जाय ? पूर्वपक्ष तो अपने उक्त कथनमें यह भी स्पष्ट स्वीकार कर रहा है कि प्रेरक निमित्तके समान पंचास्तिकायकी गाथा ८७ और १९४ की टीकाओं के माधारपर उदासीन निमित्त भी कार्योत्पत्ति उपादानका सहायक होने में कार्यकारी है, अकिचित्कर नहीं ।
पर उत्तरपक्ष उदासीन निमित्तको तो कार्यके प्रति अकिचित्कर मानकर व्यवहारहेतु मानता ही है। किन्तु प्रेरक निमित्तको भी वह कार्यके प्रति अकिंचित्कर मानकर व्यवहार हेतु मानना चाहता है । परन्तु उदासीन और प्रेरक दोनों ही निमित्त आगमके आधारपर पूर्वोक्त प्रकारसे कथंचित् अकिचित्कर और कथंचित् कार्यकारी होकर व्यवहार हेतु सिद्ध है। प्रेरक निमित्तको कार्यकारिता समयसार गाथा ८०, ९१ और १०५ के अनुसार तथा उदासीन निमित्तकी कार्यकारिता पंचास्तिकाय गाथा ८७ और ९४ की टीकाओं के अनुसार दिनकर प्रकाशकी तरह सुप्रसिद्ध है । अतः उत्तर पक्ष द्वारा मान्य इनकी अकिंचित्करताका निरसन