Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा स्वतः हो जाता है। माननीय अनुभः, इन्दिा पत्यक्ष, युक्ति और लोकव्यवहारके आधारपर भी दोनों निमित्तीको कार्यकारिताको पुष्टि तथा अकिंचित्करताका निरास होता है। तृतीय भागकी समीक्षा
तृतीय भागमें निर्दिष्ट पूर्व पक्षके कथनके विषयमें उत्तर पक्षने लिखा है कि "ऐसा नियत है कि प्रत्येक द्रध्यके किसी भी कार्यका पृथक उपादान कारणके समान उसके स्वतन्त्र एक या एकसे अधिक निमित्त कारण भी होते है । इसीका नाम कारकसाकल्प है और इसीलिए जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभया निमित्तसे कार्यकी उत्पत्ति होती है।" इसकी पुष्टि के लिए उसने समन्तभद्र स्वामीके स्वयंभस्तोत्रके "बाह्यतरोपाधि" इत्यादि पद्य ६० को भी उद्धृत किया है। उत्तरपक्ष के इस कथनके साथ पूर्व पक्षका कोई विरोध नहीं है। उत्तरपक्षको ही यह सोचना है कि यह सब कथन तो पूर्व पक्ष द्वारा मान्य निमित्तोंकी कार्यकारिताका ही समर्थन करता है, न कि उसके द्वारा मान्य उनकी अकिंचित्करताका समर्थन ।
स्वयंभस्त्रोत्रके पद्य ६० से भी यही प्रकट होता है कि द्रव्यका स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें कार्यकी उत्पत्ति बाह्य और अभ्यन्तर दोनों निमित्तोंकी रामग्रतासे ही होती है। इस उद्धरणको प्रस्तुत क उत्तरपक्षकी निमित्तोंको अकिनिस्कर स्वीकार करनेकी मान्यता सिद्ध नहीं होती। प्रत्युत उसके "कार्य तो केवल उपादानके बलपर ही होता है निमित्त वहां अकिविकर ही बने रहते हैं।" तथा "जिनागममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभयनिमित्तसे कार्यकी उत्पति होती है। इन दोनों विरुद्ध कथनों में असंगति आती है। उत्तरपक्षको यह भी विचार करता है कि तपादानकी कार्यरूप परिणति में यदि निमित्तोंके सहयोगको आवश्यकता नहीं है तो आगममें फिर कार्यकी उत्पत्ति में उपादानमें सहायक होने रूपसे निमित्तोको स्थान क्यों दिया गया है ?
एक बात और है कि उत्तरपक्षको यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार यही भय है कि निमित्तोंको उपादानको कार्योत्पत्तिमें सहायक माननेसे उपादानकी तरह निमित्तोंका भी कार्य में प्रवेश स्वीकार करना होगा। परन्तु इस भयका निराकरण पूर्वमे किया जा चुका है। इसलिए इस विषयमें यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि उपादानको कार्यके साथ द्रव्यप्रत्यासत्ति रहनके कारण उसका ही प्रवेश कार्य में होता है । परन्तु निमित्सोंकी कार्यके साथ कालप्रत्यासत्ति ही रहती है, द्रव्यप्रत्यासत्ति नहीं, अतः उनका कार्य में प्रवेश नहीं होता है।
पद्यपि उत्सरपक्ष कार्यकं साथ निमित्तोंको कालप्रत्यासत्ति मानकर भी उन्हें यहाँ पर अकिंचित्कर मानता है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि निमित्त कालप्रत्यासत्तिके आधारपर जो उपादानकी कार्यपारपतिमें सहायक होने रूपसे कारण माने गए है वे वहां पर अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर ही माने गए है। इसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। आचार्य विद्यानन्द स्वामीने तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक (पष्ट १५१) में सहकारी (निमित्त) कारणका जो लक्षण निर्धारित किया है उससे भी सहकारी कारणकी कालप्रत्यासत्तिके आधारपर कार्यकारिता हो सिद्ध होती है । वह लक्षण निम्न प्रकार है
'यदनन्तरं हि यदवयं भवति तत्तस्य सहकारिकारण मितरत् कार्यमिति ।'
१. देखो, त. च० १०९। २. निर्णयसागर प्रेस, बम्बई प्रकाशन ।