Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
दुहराया है जिसका प्रकृत प्रश्नके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । विडम्बना यह है कि इस दौर में उसने पूर्व पक्षपर अनेक कल्पित आरोप लगाये हैं और उनके आधारपर पूर्वपक्षको यद्वा राम्रा आलोचना की है 1
उत्तरपक्ष की इस स्थितिकी समीक्षा
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौरके प्रारम्भ में जो कुछ लिखा है उसका उद्धरण समीक्षाके सामान्य प्रकरणमें देते हुए उसकी वहाँ सामान्य समीक्षा भी की गयी है । उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् " इस वचनका विपरीत अभिप्राय ग्रहण करके उसके आधारसे पूर्वको प्रथम तो इस रूप में प्रदर्शित करनेका असफल प्रयत्न किया है, मानो पूर्वपक्ष दो वस्तुओंकी मिलकर एक बिकारी परिणति मानता है और पश्चात् उसके विरोध में समयसारके "नोभी परिणमतः स्खलु" इत्यादि कलश पद्य ५३ को उद्धृत किया है परन्तु जब पूर्वपक्ष दो वस्तुओं की मिलकर एक विकारी परिणति मानता ही नहीं हैं और उत्तरपक्ष भी इससे अनभिज्ञ नहीं है तो उसे इस तरह प्रदर्शित करनेका निरर्थक और अनुचित प्रयास नहीं करना चाहिये था ।
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आगे चलकर उत्तरपक्षने "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" वचनका अर्थ फलित करते हुए लिखा हैं कि "संयोगरूप भूमिकामें एक द्रव्य विकारपरिणति करनेपर अन्य द्रव्य विवक्षित पर्यायके द्वारा उसमें निमित होता है।" इसके आगे स्पष्टीकरण के रूपमें उसने उसमें यह भी लिखा है कि इससे स्पष्ट विदित होता है कि निश्चय और व्यबहार दोनों नयवचनों को स्वीकार कर "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" यह वचन लिखा गया है। स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये हैं कि संसारी आत्मा विकार भाव और चतुर्गतिभ्रण में द्रव्यक्रमका उदय निमित्त मात्र हैं, उसका मुख्य कर्त्ता तो आत्मा ही है, यह यथार्थ लिख आये हैं । पद्मनन्दिपंचविंशतिका के उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है" ।
हमें कहना पड़ता है कि उपर्युक्त प्रकार जो कुछ उत्तरपक्षने लिखा है वह सब उसका तत्वशाओंके सामने पूर्वपक्षको गलत ढंगसे प्रस्तुत करनेका असफल प्रयास है। उसके इस प्रयासको तत्त्वजिज्ञासुओं की मांखों में धूल झोंकनेका प्रयास कहा जायेगा । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
(१) पूर्वपनं पद्मनन्दिचविशतिकाके उक्त वचनको अपनी इस मान्यता की पुष्टि के लिये उद्धृत किया है कि aarकर्मका उदय संसारी बात्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमे निमित होता है। यह बात उत्तरपक्ष भी अच्छी तरह जानता है। फिर भी उसने पूर्वपक्ष के आशयको अन्यथा चित्रितकर अपने पदकी मर्यादाको भंग किया है ।
(२) द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें विद्यमान निमित्तनैमित्तिक संबंधको पूर्वपक्ष भी व्यवहारनुपका ही विषय मानता है, इस बात से भी उत्तरपक्ष अनभिज्ञ नहीं हैं। केवल दोनों पक्षों की मान्यताओं में अन्तर यह है कि जहाँ उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको कल्पनारोपित या कथनमात्र स्वीकार करता है वहीं पूर्वपक्ष व्यवहारमय के विषयको कल्पनारोपित या कथनमात्र न मानकर व्यवहाररूपमें वास्तविक ही मानता है ।
१. देखो, त० च० पृ० ३३ । २. देखो, त० च० पू० ३३ ॥
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