Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
उपस्थितिके समान इनकी उपस्थितिको भी निमित्त रूपसे स्वीकार करना संगत नहीं होगा। अथवा कार्योत्पत्ति के अवसर पर जिस प्रकार उक्त दोनों निमित्तोंकी उपस्थितिको निमित्त रूपसे स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार अन्य वस्तुओंकी उपस्थितिको भी वहाँ निमिस रूपसे स्वीकार करने का प्रसंग आयेगा। इसका दूसरा कारण यह है कि दोनों निमित्तोंको कार्योत्पत्ति के प्रप्ति सर्वथा अकिचित्कर मानने पर उनके पृथक्-पृथक् लक्षणोंके निर्धारणका कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि दोनों निमित्तों में जो भेद है वह कार्योत्पत्ति के प्रति उनकी प्रेरकता और भप्रेरकता ( उदासीनता) रूप' पृथक-पृथक् उपयोगिताके रूपमें ही सार्थक माना जा सकता है। लेकिन जब कार्योत्पत्तिमें दोनों निमितोंको अकिचिकर मान लिया जाता है तो उनमें कार्योत्पत्तिके प्रति चाहें क्रिया द्वारा निमित्तता स्वीकार की जावे मा चाहें निष्क्रिवरूपसे निमित्तता स्वीकार की जाये, इससे उनकी कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्ततामें कोई अन्तर नहीं होता है। इस तरह उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत दोनों निमित्तोंके लक्षणोंका असम्यक्पना सिद्ध हो जाता है। पूर्वपक्ष द्वारा अभिहित दोनों निमित्तोंके लक्षण सम्यक हैं
पूर्वपक्षको मान्य दोनों निमित्तोंके लक्षण सम्यक है। इसका एक कारण यह है कि दोनों निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणतिम अपने-अपने हमसे सहायक होन रूपसे यदि कार्यकारी मा जाता है तो इसरो कार्योत्पत्ति के अवसर पर उनकी निमित्तरूपसे उपस्थिति पत्रितयुक्त हो जाती है। दूसरा कारण मह है कि दोनों निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणसिमें अपने-अपने ढंगमे सहायक होने रूपमें जब कार्यकारी मान लिया जाता है तो कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तौके साथ कार्यको अन्धय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर निमित्तता स्वीकार करने और निमित्तोंकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर निमित्तता स्वीकार करने के रूपमें पृथक-पृथक् सहायकत्व सिद्ध हो जानेसे प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंमें मन्तर सिद्ध है। इस तरह पूर्वपक्ष को मान्य दोनों निमितोंके लक्षणोका सम्यक्पना सिद्ध हो जाता है। उक्त लक्षणों के सम्यक्पने और असम्यक्पनेकी आगम द्वारा पुष्टि
परीक्षामुखसूत्र ३-६३ को प्रमेयरत्नमाला टोकामें ऐसा कथन पाया जाता है जो दोनों निमित्तोंके लक्षणोंका निर्धारण करता है । वह कयन निम्न प्रकार है :
___ "अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्य प्रति कारणध्यापारसव्यपेक्षावेवोपपद्यन्ते कुलालस्पेव कलशं प्रति ।।"
अर्थ-कार्यकारणभावका निर्णय सर्वत्र कार्य और कारणके साथ विद्यमान अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर ही करने योग्य है। वे अन्वय और व्यतिरेक कार्य के प्रति कारणभ्यापार सापेक्ष ही उपपन्न होते है। जैसे कलशरूप कार्यके प्रति कुम्भकाररूप कारणव्यापारसापेक्ष अन्वय और व्यतिरेक देखे जाते हैं।
इससे निर्णीत होता है कि कार्यकारणभावकी नियामक कार्य और कारणमें विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ ही है।
कार्य-कारणभात्र एक तो उपादानोपादेयभावरूप होता है जो उपादान कारण और उपादेय कार्य में पाया जाता है। इस उपादानोपादेवभावरूप कार्यकारणभावकी नियामक उपादान कारण और उपादेय कार्य में विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां होती है, जो इस प्रकार है-जिस वस्तु में जिस कार्यकी उपादानशक्ति (कार्य