Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
५. जहाँ उत्तर पक्षका कहना है कि प्रेरक निमित्तोंके वलये किसी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे नहीं किया जा सकता है वहाँ पूर्व पक्षका कहना है कि 'प्रेरक तिमित' शब्द से ही यह ध्वनित होता है कि उनके बलसे कार्यको आगे-पीछे भी किया जा सकता है ।
इस प्रकार गहरा विमर्श करने पर अवगत होता है कि पूर्वपक्ष की मान्यताएँ संगत हैं और उत्तरपक्ष की मान्यताएँ रांगत नहीं हैं ।
११
उत्तरपक्षका संभावित भय और उसका निराकरण
आगे उत्तरपक्ष के उस भयका भी निराकरण किया जाता है जो उसे दोनों निमित्तोंको कार्यकारी मानने पर प्रेरक निमित्तोंके बलसे कार्यके आगे पीछे होनेकी मान्यता से उत्पन्न हो गया है ।
यतः पूर्वपक्ष ने दोनों प्रकारके निमित्तोंको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी माना है और उसने यह भी स्वीकार किया है कि प्रेरक निमित्त और कार्यमें विद्यमान पूर्वोक्त अन्दय और व्यतिरेकव्याप्तियोंके अनुसार उस प्रेरक निमित्त के बलसे कार्य आगे पीछे किया जा सकता है, अतः उत्तरपक्षको यदि यह भय हो कि इस तरह तो प्रेरक निमित्त के बलसे उपादानमें विपरीत कार्य भी हो सकता है । फलतः अज्ञ विज्ञताको और विज्ञ अज्ञताको प्राप्त हो जाएगा तथा शुकके समान बक ( बगुला ) को भी पढ़ाया जा सकेगा, तो उसका यह भय निराधार है, क्योंकि पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि कारसिकी स्वाभाविक योग्यताके अभाव में कोई वस्तु प्रेरक निमित्त के बलसे उस कार्य रूप परिणत नहीं हो सकती है | प्रेरक निमित्त तो कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट वस्तुको ही उस कार्य रूप परिणत होने में प्रेरणा कर सकता है। अर्थात् प्रेरक निमित्त उसी वस्तुको उस कार्योत्पत्ति के प्रति प्रेरित करता है जिसमें उस कार्यकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान रहती है ।
उपादान कार्योत्पत्ति के लिए प्रेरक निमित्तोंकी प्रेरणा इसलिए आवश्यक है कि उनकी प्रेरणा प्राप्त किये बिना उपादान कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यता के सद्भावमें भी अपने में उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है । या उत्तरपक्ष यह दावा कर सकता है कि कुम्भकाररूप प्रेरक निमित्त की प्रेरणा प्राप्त किये बिना ही मिट्टी अपने में घटकार्यको उत्पन्न कर सकती है ? अर्थात् नहीं कर सकती है क्योंकि वह मिट्टी से होनेवाली घटोत्पत्ति के अवसर पर घटानुकूल व्यापार करते हुए कुम्भकाररूप प्रेरक निमित्तकी अनिवार्य उपस्थितिको स्वीकार करता है फिर भले ही वह यह मानता रहे कि उक्त अवसरपर कुम्भकार रूप प्रेरक निमित्तको उपस्थिति रहते हुए भी मिट्टी स्वयं ( अपने आप ) अर्थात् कुम्भकार की प्रेरणा प्राप्त किये बिना ही अपने घटको उत्पन्न कर लेती है और कुम्भकार वहाँ सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है । परन्तु उसकी यह मान्यता प्रमाणसम्मत नहीं है । जैसा कि इससे पूर्व स्पष्ट किया जा चुका है ।
पूर्वपक्ष आगमप्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध कर चुका है कि उपादानरूप पदार्थकी जो कार्यरूप परिणति उसमें विद्यमान कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है वह प्रेरक और साथ ही अप्रेरक निमित्तोंका सहयोग मिलने पर ही होती है, स्वयं (अपने आप ) नहीं । इस तरह उपादानकी कार्यरूप परिणति में प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकारके निमित्त अपने-अपने ढंग से सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी स्पष्ट सिद्ध होते हैं। वे वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर नहीं बने रहते हैं ।
इष्टोपदेश के पद्य ३५ और उसकी टीका में निर्दिष्ट 'स्वाभाविकं हि निष्पत्ती' व 'बच्चे पतत्यपि ' इन दोनों का इतना ही अभिप्राय है कि कार्यकी स्वाभाविक योग्यताके अभाव में केवल निमित्तोंके बलपर