Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा को पूर्वपक्षको मान्यताके अनुसार उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधार पर अकिंचिकर और उपादान' कारणभूत संसारी आरमाकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे यहां पर उस कार्य रूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी कार्यरूप परिणतिम महायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा अकिचित्कर माना जाय । और दूसरी यह कि उस उदयपर्यावविशिष्ट द्रव्यकर्मको पूर्व पक्षको मान्यताके अनुसार उपर्युक्त प्रकारसे कथंचित् अकिचिस्कर व कथंचित् कार्यकारी मानकर उस रूपमें कचित् अभृतार्थ और अथंचित् भूतार्थ माना जाय, य इस तरह उसे अभूतार्थ और भूतार्थरूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए या उत्तरपशकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँ पर उपयुक्त प्रकार सर्वथा किंचित्कर मानकर उस रूपमें सर्वथा अभूतार्थ माना जाए व इस तरह उसे सर्वथा अभूतार्थ रूपमें व्यवहारनयवा विषय माना जाए।
उपर्युक्त दोनों बातामसे प्रथम कातक सम्बन्धमें विचार करनेके उद्देश्यसे ही खानिया तत्त्वच के अवसरपर दोनों पक्षोंकी सहमतिपूर्वक उपर्युक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था। इतना ही नहीं, खानिया तत्त्वचषांके सभी १७ प्रश्न उभयपक्षकी सहमति पूर्वक ही चर्चा के लिये प्रस्तुत किये गये थे।
यहाँ प्रसंगवण मैं इतना संकेत कर देना उचित समझता हूँ कि तत्त्वचर्चाको भमिका तैयार करने के अवसरपर पं० फूलचन्द्रजीने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव इस आणयका रखा था कि चर्चा के लिए जितने प्रश्न उपस्थित किये जायेंगे वे सब उभय पक्षको सहमतिसे ही उपस्थित किये जायेंगे और उपस्थित सभी प्रश्नोंपर दोनों पक्ष प्रथमतः अपने अपने विचार आगमके समर्थन पूर्वक एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे तथा दोनों ही पक्ष एक दूसरे पक्षके समक्ष रखे गये उन विचारोंपर आगमके आधारपर ही अपनी आलोचनाएँ एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे और अन्समें दोनों ही पक्ष उन आलोचनाओंका उत्तर भी आगमसे प्रमाणित करते हुए एक दूसरे पक्ष समक्ष प्रस्तुत करेंगे ।
___ यद्यपि पं० फूलचन्द्रजीके इस प्रस्तावको मैंने सहर्ष तत्काल स्वीकार कर लिया था, परन्तु चर्चाके अवमरपर पं० फलचन्द्रजी सोनगढ़ के प्रतिनिधि नेमिचन्द्रजी पाटनीके दुराग्रह के सामने झुककर अपने उक्त प्रस्तावको रचनात्मक रूप देने के लिए तैयार नहीं हए । इसका परिणाम यह हुआ कि जो सभी प्रश्न उभय पक्ष सम्मत होकर दोनों पक्षोंको समान रूपसे विचारणीय थे, वे पूर्वपक्षके प्रश्न बनकर रह गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता बन गया ।
यतः प्रश्नोंको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षने प्रमुख भूमिकाका निर्वाह किया था, अतः उसे एक तो पं. फूलचन्द्रजीके उक्त परिवर्तित रुखको देखकर उसको दृष्टिसे ओझल कर देना पड़ा और दूसरी बात यह भी थी कि उसके सामने तत्त्वनिर्णयका उद्देश्य प्रमुख मा व उसको अणु मात्र भी यह कल्पना नहीं थी कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी इस सहनशीलताका दुरुपयोग करेगा | परन्तु तत्त्वचर्चा अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उत्तर पक्षने पूर्वपक्षको सहनशीलताका तत्त्ववर्षा में अघिकसे अधिक दुरुपयोग किया है। मह बात तत्त्वच की इस समीक्षासे भी ज्ञात हो जायगी।
समीक्षा लिखने हेतु
यतः उभय पक्ष सहमत वे सभी प्रश्न उपर्युक्त प्रकार पूर्वपक्ष के प्रश्न बन गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता । अतः इस समीक्षाका लिखना तस्वनिर्णय करनेकी दृष्टिसे आवश्यक हो गया है। एक बात