Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
बाह्य सामग्रीको वहीं पूर्वोक्त प्रकार सर्वथा अकिचित्कर रूपमें अयथार्थ कारण मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वह पूर्वोक्तप्रकार ही कथंचित् अकिंचित्कर और कथंचित् कार्यकारी रूपमें अयथार्थ कारण मानता है । दोनों पक्षों की परस्पर विरोधी इन मान्यताओंमें कौन-सी मान्यता आगमसम्मत है और कौन-सी आगमसम्मत नहीं है, इस पर आगे विचार किया जायगा ।
इसी प्रकार उत्तरपक्षने अपने
के अनुसूची
में उप 'द्वमकुतो लोके विकारो भवेत्' इस आगमवाक्य को लेकर उसपर ( पूर्वपक्ष पर ) मिथ्या आरोप लगानेके लिये लिखा है कि 'अपरपक्षने पद्मन्दिपंचविशतिका २३७ के 'द्रमकृती लोके विकारो भवेत्' इस कथनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो वहां देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्य की विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकाल में नहीं कर सकते ।'
इस विषय में मेरा कहना है और उत्तरपक्ष भी जानता है कि उक्त आगमवाश्यका यह अभिप्राय नहीं है कि दो मिलकर एक विभावपरिणति होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तुकी विकारी परिणति दूसरी अनुकूल वस्तुका सहयोग मिलने पर ही होती है व पूर्वपक्ष ने इसी आशयसे उक्त आगमवाक्य को अपने वक्तव्यमें उद्धृत किया है, दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती हैं, इस आशयसे नहीं । इस तरह उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष पर यह आरोप लगाना भी मिथ्या है ।
जान पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर उक्त प्रकारका मिथ्या आरोप लगानेकी दृष्टिसे ही उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय लेना चाहता है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है। इस तरह कहना चाहिए कि उत्तरपक्षकी यह वृत्ति उस व्यक्ति के समान है जो दूसरेको अपशकुन करनेके लिये अपनी आंख फोड़ने का प्रयत्न करता है ।
अन्तमें मैं कहना चाहता हूँ कि तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसे की जानेवाली इस तस्वचर्चा में ऐसे सारहीन और अनुचित प्रयत्न करना उत्तरपक्ष के लिये शोभास्पद नहीं है । किन्तु उसने ऐसे प्रयत्न तस्वचच स्थान-स्थानपर किये हैं । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्षने अपने इस प्रकारके प्रयत्नों द्वारा पूर्वपक्षको उलझा देना ही अपने लिये श्रेयस्कर समझ लिया था ।
उत्तरपक्ष इस तरह के प्रयत्नोंका एक परिणाम यह हुआ है कि खानिया तत्त्वचर्चा सत्त्वचर्चा न रहकर केवल दिसण्डावाद बन गई है और वह इतनी विशालकाय हो गई है कि उसमेंसे तत्त्व फलित कर लेगा विद्वानों के लिए भी सरल नहीं है ।
यद्यपि पूर्वपक्ष ने अपने वक्तव्यों में शक्ति भर यह प्रयत्न किया है कि खानिया तत्त्वत्वर्षा तत्त्व फलित करने तक ही सीमित रहे । परन्तु इस विषय में उत्तरपक्षका सहयोग नहीं मिल सका, यह खेदेकी बात है ।
वास्तविक बात यह है कि इस तत्त्वचत्र किसी प्रकार अपने पक्ष को विजयी बनाया जावे। अपने उक्त उद्देश्यको पूर्तिके लिए ही हुए हूँ ।
उत्तरपक्षने अपनी एक ही दृष्टि बना ली थी कि जिस इसलिए उसके आदिसे अन्त तक के सभी प्रयत्न केवल