Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रति जीवको निमित्त रूपसे कार्यकारी स्वीकार कर लिया जावे, अन्यथा नहीं। इस तरह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त कथन उत्तरपक्षको निमित्तको अकिंचिकर स्वीकार करनेकी मान्यताका आत्मघाती है ।
तात्पर्य यह है कि उत्तरपक्ष, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है-संसारी जीवके विकारभाष और चतुर्गतिनमणमें उदयपर्याय विशिष्ट व्यकर्मको निमित्तकारण तो मानता है, परन्तु वह वहीं उसे उस कार्यरूप परिणत न होने और उपाधानकारणभूत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होने के आधारपर सर्वथा अकिंचिकर ही मानता है जब कि पूर्वपक्ष उस कार्य के प्रति उस उदयपर्यावविशिष्ट व्यकर्मको जो निमित्तकारण मानता है वह इस आधारपर मानता है कि वह उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्म उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधारपर अकिंचितार और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी सिद्ध होता है। प्रयचनसारको उक्त गाथा (२-७७ ।। १६९ ॥) व उसकी टीका तथा रामयमार गाथा १०५ और उसकी टीकासे भी वह उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म पूर्वोक्त प्रकार संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्यके प्रति सहायक होने के आधारपर कार्यकारी ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्षको अपनी मान्यताके विरोधी इन आगमवचनोंको उपस्थित करते हुए इस स्थितिपर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए था। पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्वपक्षके प्रश्नका आशय यही था कि दोनों ही पक्षों द्वारा निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक होनेरूपसे कार्यकारी होता है या यह उसमें सर्वथा अकिचिकर ही बना रहता है। परन्तु उत्तरपशने अपने उसरमें उस व्यकर्मके उदवके विषयमें न तो पूर्व पक्षको इस मान्यताको स्वीकार किया है कि द्रव्यकर्मका जदय गंसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहायक रूपसे कार्यकारी होता है। और न उसके विषय में अपनी सर्वथा अकिंचित्करता सम्बन्धी मान्यताको ही पुष्ट किया है। उसने अपने उत्तरमें केवल इतना ही बतलाया है कि द्रव्यकर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्तकारण है व साथमें यह भी कथन किया है कि द्रश्यकम के उदम और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तकर्म सम्बन्ध नहीं है जबकि इन दोनों बातोंका प्रदनके उत्तरमें कोई उपयोग नहीं है
और जैसा कि पहले हो स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्व पक्षको उत्तरपक्ष के साथ न तो द्रव्यकर्मोदयगत निमित्तताको व्यवहारनयका विषय मानने में विवाद है और न द्रव्यकर्मोदय व संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तृकर्मसम्बन्धको न माननेके विषयमें ही विवाद है । पूर्वपक्षका प्रश्न केवल यह था कि व्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त (सहायक) रूपसे कार्यकारी होता है या वह उसमें सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है। ऐसी स्थितिमें उत्तरपक्षको प्रश्नका उत्तर देते समय यह निर्णय करना था कि क्या उसका उत्तर प्रश्नका समाधान करने में सक्षम है ? तत्त्वजिज्ञासुओंको इस विषयमें गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। आगे प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षा की जाती है।
३. प्रश्नोत्तर १ के द्वितीय शौरको समीक्षा द्वितीय दोरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
यतः उत्तरपक्षने अपने प्रथम दौर में पूर्व पक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं दिया है, अतः पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षके प्रथम दौरको सामग्रीकी आलोचना करते हुए ऐसे आगमप्रमाणोंको उद्धृत किया है, जिनसे संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें संसारी आत्माके लिए सहायक होने रूपसे द्रब्यकर्म