Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
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उक्त गाथाएँ प्रकृतमें उत्तरपक्षकी मान्यता के विपरीत हैं
एक बात यह भी है कि समयसारको उक्त गाथाएँ द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण स्वीकृत निमित्तनैमित्तिकभावको उत्तरपक्षको मान्य अकिंचित्करताको सिद्ध करनेमें असमर्थ हैं, प्रत्युत पूर्वपक्षको मान्य उसकी कार्यकारिताको ही सिद्ध करती हैं, क्योंकि गाथाओंका अर्थ करते समय स्वयं उत्तरपक्ष ने इस बातको स्वीकार किया है कि एक दूसरे के निमित्तसे एक दूसरेका परिणाम होता है । इस विषयको आगे स्पष्ट किया जायगा ।
प्रश्न के उत्तर में अन्य प्रमाण भी अनुपयोगी हैं।
उत्तरपक्षने अपने उस रमे पंचास्तिकाय गाया ८९ को जिस टीकाका उद्धरण निमित्तको व्यवहार हेतु सिद्ध करनेके लिए दिया है उसके विषय में यद्यपि पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष के साथ कोई विवाद नहीं है, परन्तु उसका प्रश्न के उत्तर में कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रयत्न नयविषय को लेकर नहीं किया गया है, अपितु निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धकी कार्यकारिता या अकिंचित्करताको सिद्ध करनेकी दृष्टिसे किया गया है। इस तरह वहाँ उक्त सम्बन्धको व्यवहार नयविषयताको पुष्ट करनेवाली पंचास्तिकायको उक्त टीकाको उद्धृत करनेकी क्या उपयोगिता रह जाती है। एक बात यह भी है कि उक्त निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धी व्यवहारनयविषयताको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद भी नहीं है । जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है ।
इसी तरह उत्तरपक्षने अपने उत्तर में दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्तृकर्म सम्बन्धका निषेध करनेके लिए प्रवचनसार गाया २ ७७ ।। १६९।। और उसकी टीकाको भो उद्धृत किया है तथा उनमें कर्तृकर्म सम्बन्ध को उपचरितरूपताको सिद्ध करनेके लिए समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकाको भी उद्धृत किया है। परन्तु जब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि इस विषय में दोनों पक्षोंके मध्य न तो कोई विवाद है और न प्रश्न ही इस आशय से किया गया है तो उत्तरपक्ष द्वारा जानते हुए भी इस प्रकारका निरर्थक प्रयास किया जाना उसकी बुद्धिमानीका सूचक नहीं है ।
उक्त प्रमाण भी उत्तरपक्षकी मान्यताके विपरीत प्रयोजन सिद्ध करते हैं
प्रवचनसार गाथा २-७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे उत्तर पक्षकी मान्यता के विपरीत यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि कर्मस्वके योग्य स्कन्ध (कामणवर्गणाएँ) आत्माको अनुकूल परिणतिको प्राप्त कर फर्मभावको प्राप्त होते हैं । इसी तरह समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे भी उत्तरपक्षकी मान्यता के विपरीत यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि जीवके निमित्त होनेपर कर्मबन्धका परिणाम देखा जाता है । इस तरह इनसे कार्योत्पत्ति में पूर्वपक्षको मान्य निमित्तकी कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उत्तरपक्षको मान्य उसकी अकिचित्करता सिद्ध नहीं होती ।
किंच, प्रवघनसार गाथा २- ७७ ।। १६९ ।। और उसकी टीकासे जीव कर्मके कर्तृत्वका जो निषेध सिद्ध होता है यह निर्विवाद है । परन्तु उनसे कामणवर्गणाओंके कर्मरूप परिणमनमें जीव की निमित्त रूप से ( सहायक ) कारणताकी तो सिद्धि ही होती है । इसी तरह समयसार गाथा १०५ और उसकी टीकासे कर्म के प्रति जीव में उपचरित कर्तृत्व सिद्ध होता है, वास्तविक कर्तृत्व नहीं, जो निर्विवाद है । परन्तु उनसे भी तो सिद्ध होता है कि जीव में कर्मबन्धके प्रति उपचरित कर्तृव तभी सिद्ध होता है जब उस कर्मचषके
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