Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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तृतीय दौर के अनुच्छेद में इस बातको स्वीकार किया है। इसलिये उत्तरपक्षको अपना उत्तर या तो ऐसा देना चाहिए था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारो आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में निर्मित होता है । अथवा ऐसा देना चाहिए था कि वह उसमें निमित्त नहीं होता है- संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके निभिप्त हुए बिना अपने आप हो होता रहता है।
उत्तरपक्षने प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि " द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है ।" ० ० पृ० १ । इस उत्तरमें "व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है" इस कथनका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में स्वीकृत निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध oreहारका विषय है। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद १ में यह स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वपक्ष ने अपने प्रश्न में यह नहीं पूछा है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा बिकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में स्वीकृत निमित्-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है या निश्चयनयका अथवा यह नहीं पूछा है कि उक्त निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारसे है या निश्चयसे । पूर्वपक्षका प्रश्न तो यह है कि
कर्मके उदयसंसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं (त० च० पृ० १) । इसका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। अथवा यह आशय होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकार भाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है या नहीं । प्रश्नका स्पष्ट आशय यह होता हूँ कि
कर्मका उदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्त रूपसे कार्यकारी होता है मा वह वहां पर उस रूप में सर्वथा अकिचित्कर हो बना रहता है और संसारी आत्मा द्रव्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणरूप परिणमन करता रहता 1
यतः उत्तरपक्ष द्वारा दिये गये उक्त उत्तरसे उक्त प्रश्नका उपर्युक्त प्रकार समाधान नहीं होता, अतः निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर नहीं है ।
उत्तर प्रश्न के बाहर भी है
उत्तरपक्षने अपने उत्तर में यह अतिरिक्त बात भी जोड़ दी है कि द्रश्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में कर्तृकर्मसम्बन्ध नहीं है, जिसका प्रश्नके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष ने अपने प्रश्न में उनके मध्य कर्तृकर्स सम्बन्ध होने या न होनेकी चर्चा ही नहीं की है। इस तरह इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर नहीं है । उत्तर अप्रासंगिक है।
यतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है अतः स्पष्ट हो जाता है कि उक्त उत्तर अप्रसांगिक है ।
१. एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है । ० ० पृ० ३२. १
२. और दूसरी ओर श्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारनयसे बतलायें गये निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आचर्य है । ० च० पृ० ३२ ।