Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका ४ और उसका समाधान
१५५
एक ही आत्मा एक कालमें कथंचित शुद्ध है और कचित् अशद्ध है। जिनवाणी भी यही है ऐसा जानकर और पर्यायार्थिक नमके विषयको गौण कर जो द्रव्याषिक नयके विषयभूत आत्माको दृष्टि में अवलम्बनकर तत्स्वरूप परिणमता है सही परम पदका अधिकारी होता है । यह १२वीं गाथा और उसकी दोनों टीकाओंका आशय है। इससे व्यवहारनयका विषय जानने के लिए तो प्रयोजनवान् बतलाया पर आदर करने योग्य नहीं बतलाया, यह तथ्य भी समझमें आ जाता है, क्योंकि कौन ऐसा मुमुक्षु जीव है कि जो जिस मुणस्थानमें है उसी में रहना चाहेगा। उसका प्रयत्न तो निरन्तर आगे बढ़ने का ही होगा । और आगे बढ़ना उसी गुणस्थानके भावोंमें रत रहनेसे बन नहीं सकता। वह जिस गुणस्थानमें है उस गुणस्थानके अनुरूप ही प्रवृत्ति करेगा, इसमें सन्देह नहीं । किन्तु उस प्रवृत्तिको आगे बढ़ाने का साधन न मानकर अन्तरंगमें उस साधनको अपनानेकी चेष्टा करता रहेगा जो उसे वर्तमान गुणस्थानसे उठाकर यथायोग्य आगेके गणस्थानों में पहचा देगा। ऐसा यदि कोई माधन है तो वह एकमात्र जायक भावका अवलम्बन ले तत्स्वरूप परिणमना ही है। इसमें जितनी प्रगाढ़ता भाती जायगी उतना ही वह आगे बढ़ता जायगा । इसके सिवा मोक्षमार्ग में आगे बढ़नेका अन्य कोई साचन नहीं। यही कारण है कि निश्चय धर्मकी प्राप्तिमें व्यवहार धर्मको निमित्त मात्र कहा है। साक्षात् सावन तो जायक स्वभावका अवलम्बन कर तत्स्वरूप परिणामना हो है।
___ आचार्य अमृतचन्द्र ने जो 'जइ जिणमयं' इत्यादि गाथा उद्धृत की है उसका भी यही आशय हैं । व्यवहार नपके अनुसार गुणस्थानभेद है, मार्गणास्थान भेद है और जोबसमासभेद हैं आदि । भला ऐसा कौन मुमुक्ष जीन है जो इसकी सत्ता नहीं मानेगा। यदि इन्हें ने स्वीकार किया जाय तो उत्कृष्ट । प्रवृत्ति ही नहीं बन सकतो और उसके अभाव में व्यवहार तीर्थकी सिद्धि नहीं होती। स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें उत्तम तीर्थका निर्देश करते हुए लिखा है
रयणत्तयसंजुत्तो जीवो वि हवे उत्तम तित्थं ।
संसार तरेइ जदो रयणतयदिव्वणावाए । १९१ ।। रनायके संयुक्त यही जीव उत्तम तीर्थ है, क्योंकि वह रलत्रयरूपी दिव्य नावसे संसारको पार करता है । १९१ ।।
और इसी प्रकार ऐसा कौन मुमुक्षु जीव है जो शुद्ध नयके विषयभूत नित्य पियनस्वभाव शुद्ध आत्मतत्त्वको नहीं स्वीकार करेगा, क्योंकि उसके अभावमें तत्त्वकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। फिर तो भेद व्यवहार या उपचरित व्यवहारकी बात करना ही व्यर्थ हो जाता है-'मूलो नास्ति कुतः शाखा ।'
इस प्रकार दो नय हैं और दोनों के विषय हैं ऐसा प्रत्येक ज्ञानी जानता हो है । जिनमतकी प्रवृत्तिका यह मूल है।
३. प्रश्न चारके परिशिष्टका ऊहापोह इस परिशिष्ट के प्रारम्भमें मह तो स्वीकार कर लिया है कि सच्चे दवादि विषयक भक्ति प्रमुख उत्कृष्ट अनुराग व्यवहार धर्म है। साथ ही इसमें बाह्म क्रियाको भी व्यवहार धर्ममें गभित किया गया है। किन्तु उस बाह्य क्रियासे आत्माको प्रशस्त रागरूप परिणति ली गई है या पुद्गल द्रव्यकी क्रिया ली गयी है इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। क्रिया शब्द परिणामके अर्धमें भी आता है और परिस्पन्दके अर्थ में भी आता है। यदि अपर पक्षको बाए क्रियासे सच्चे वेवादिविषयक प्रशस्त राग अपेक्षित है तो सम्यग्दटिके