Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ४ और उसका समाधान १. आत्माफी आरमा द्वारा बारमामें जो वक्षा, मान और मात्मस्थितिरूप स्वभाव परिणति होती है उसका नाम निश्चय रत्नत्रय है।
२. ऐसे रस्नत्रयसे बन्ध कैसे हो सकता है, अर्थात् त्रिकालमें नहीं होता ।
३. निश्चयसे ऐसे रत्नत्रयकी उत्पत्तिका साधन आत्मा ही है। यह करण साधन होकर अपने द्वारा अपने आत्मामें आप कर्ता बनता हुआ निश्चय रत्नत्रयको उत्पन्न करता है।
किन्तु व्यवहार रत्नत्रय इससे विरुद्ध स्वभाववाला है। इसका विषय स्व नहीं है, पर है, वह बन्ध स्वभाववाला है और वह निश्चय रत्नत्रयका कारण होनेसे रत्नत्रय कहलाता है । साथ ही वह वीतराग देवादि पर पदार्थीको साधन बनाकर उत्पन्न होता है, इसलिए वह प्रपास्त रागस्वभावयाला होनेके कारण सहर सम्बनधश साधक कहा गया है। अतएव हमने जो यह लिखा है कि 'जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहाँ उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है वह मागम संगत ही लिखा है ।
अपर पक्षने उक्त कथनो स्पष्टतः पोषक जिन प्रमाणोंकी जिज्ञासा की थी वे यहाँ दिये ही है । हमें विश्वास है कि अपर पक्षको उनके आधार पर यथार्थका निर्णय करनेमें सहायता मिलेगी।
तत्त्वार्थसूत्रमें हिंसादि क्रियाकी निवृत्ति का भानवतस्वमें अन्तर्भाव करना और द्रव्यसंग्रहमें व्रत, समिति और गुप्तिको शुभक्रिया लिखकर उस रूप प्रवृत्तिको व्यवहार में कहना ही यह सिद्ध करता है कि व्यवहार धर्म समचे देवादिविषयक प्रशस्त राग परिणामका ही दूसरा नाम है। जो भी इन्ध होता है यह पर्यायाथिक नयसे योग और कषायको निमित्त कर ही होता है और व्यवहारचर्म बन्धका हेतु है, क्य आचार्योने उसका आस्रव वत्त्वमें अन्तर्भाव किया है। इसलिए उसे सच्चे देवादिविषयक प्रशस्त रागरूप ही जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
अपर पक्षने 'व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? यह प्रश्न किस अभिप्रायसे किया है इसे हम तत्काल समझ गये थे। किन्तु अपर पक्ष ने वर्तमानमें प्रवचनकी जो धारा पल रही है उसके आशयकी ओर लक्ष्य न देकर उसके प्रति विरोधका जो वातावरण बतलाया है वह उचित नहीं है। इससे समाजकी जो हानि हो रही है वह बचनातीप्त है। हम कुछ काल पूर्व हो गये ऐसे मनुष्योंको जानते हैं जिन्होंने मुनिलिंग तक धारण कर अपना पतन तो किया हो, समाजमें मोक्षमार्गके प्रति अधद्धा भी उत्पन्न की, पूर्व में हो गये ऐसे त्यागियोंको भी जानते हैं। वर्तमामकालकी हम बात नहीं करना चाहते, क्या इतने मात्रसे जैसे व्यवहार कपनीका निषेध नहीं किया जा सकता उसी प्रकार यह देखकर कि कुछ मनुष्योंने निश्चय कथनीको सुनकर यद्वा तवा प्रवृत्तिको प्रारम्भ कर दिया है यह बात सच्ची हो तो, निश्चय कथनीका निषेध करना और उसके लिए आन्दोलन तकका मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। जहां तक समाजके उस वर्गका प्रश्न है जो निश्चय कथनीफे शास्त्रोका विशेषरूपसे अभ्यास करते हैं, उनके अनुरुप प्रवचनोंमें सम्मिलित होते हैं, उसके सम्बन्धमें हम यह दृढ़तापूर्वक कह सकते है कि न तो उनमेंसे रहधा आलू आदि कन्दमूल, बेगन और शहद आदि अभक्ष्य भक्षण करते हैं, जो पूर्वमें करते रहे है उन्होंने उनका स्याग कर दिया है। प्रतिदिन देवदर्शन करना या देवपूजा करना तथा शास्त्रस्वाध्यायमें सम्मिलित होना यह उनका प्रधान कर्तव्य हो गया है। रात्रिभोजम भी उनमें प्रायः नहीं देखा जाता । किन्तु इसके विपरीत जो स्थिति समाजमें है उसकी इम अपर पक्षके समान लांछनके रूपमें घर्षा नहीं करना चाहते । हम