Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ-व्यवहार मार्गका नाश हो जायगा और दूसरे निश्चयके बिना तस्व (वस्तु) का नाश हो जायगा ।
नोट -- निश्चयनय और व्यवहारनयके स्वरूपको समझाने के लिए प्रश्न संख्या १, ५, ६, १६ व १७ भी देखिये | इसके साथ इसका परिशिष्ट भी हैं ।
प्रश्न चार का परिशिष्ट
संक्षेप में इसका अन्तिम फलितार्थ यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि, पंचम गुणस्थान वर्ती श्रावक और संयम जो हाजिर किया है वह सो व्यवहार धर्म कहलाता है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप आत्माकी विशुद्ध अविकारी वीतरागता पूर्ण जो स्थिति बनती है उसे निश्चय धर्म कहते हैं ।
वीतरागी देव वीतरागी गुरु और वीतरागता के पोषक आगमके प्रति भक्ति प्रगट करना, इनके प्रति आकृष्ट हो जाना यह सब अविरत सम्यग्दृष्टिका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार सम्यग्दर्शनरूप व्यवहार धर्म कहलाता है और सांसारिक प्रवृत्तियों के एकदेश त्यागने रूप अणुव्रतोंको धारण करना यह सन श्रावकका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार चारित्र रूप व्यवहार धर्म तथा उन्हीं सांसारिक प्रवृत्तियोंके सर्वदेश त्यागने रूप महाव्रतोंका धारण करना यह सब संयमी मुनियोंका बाह्य आचार अर्थात् व्यवहार चारित्र रूप व्यवहार धर्म कहलाता है ।
प्राणीका लक्ष्य आत्माको विशुद्ध-निर्विकार वीतराग और स्वतन्त्र बनानेका जन संस्कृति में निर्धारित किया गया है इसलिये इस प्रकारका निश्चयधर्म प्राणी के सामने साध्य के रूपमें उपस्थित होता है और जब वह प्राणी यथायोग्य प्रकार से क्रमशः अविरत सम्यग्दृष्टि, थावक तथा मुनियोंके उपर्युक्त बाह्याचारके रूपमें व्यवहार धर्मको अपनाता है ।
अविरतसम्यग्दृष्टि, श्रावक और मुनियोंके बाह्याकार रूप व्यवहारधर्मको द्रव्यलिंग और इनके अन्तरंग मात्मविशुद्धिमय निश्चयधर्मको भावलिंग भी कहते हैं । व्यवहारधर्मका प्रतिपादक चरणानुयोग है और निश्चयधर्मका प्रतिपादक करणानुयोग है। चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव जीवनकी बाह्य स्थिति में प्रवर्तमान रहते हैं, अतः ऐसे जीवोंका मुख्यत्तया बाह्य पुरुषार्थ पर लक्ष्य रहना आवश्यक हो जाता है और यही कारण है कि इन जीवोंके व्यवहार धर्मकी मुख्यता तथा निश्चयधर्मको गौणता स्वभावतः रहती है । सप्तम गुणस्थानसे लेकर आगे गुणस्थानों में रहनेवाले जीव जीवनको अन्तरंग स्थितिमें प्रवर्तमान हो जाते हैं, अतः ऐसे जीवोंकी वृत्ति बाह्य पुरुषार्थसे हटकर अन्तरंग पुरुषार्थ के उन्मुख हो जाती है। यही कारण है कि सप्तम आदि गुणस्थानोंमं पहुँचे हुए जीवोंके निश्वय धर्मकी प्रधानता तथा व्यवहार धर्मकी गोणता स्वभावतः हो जाती है । इस अभिप्रायको ध्यान में रखकर ही आचार्य कुन्दकुन्दले निम्नलिखित गाथाकी रचना की है— सुद्धा सुद्धादेसी गायव्वा परमभावदरसीहि ।
बहारदेसिया पुण जे दु अपरमे ट्टिदा भावे ||१२|| – समयसार
अर्थ — जो जीव जीवनकी बाह्य स्थिति से हटकर अन्तरंग स्थिति में पहुँच गये हैं उन्हें अपने परम (उस्ष्ट) स्वाति मायके दर्शन होते हैं इस कारण उन जीवोंके शुद्ध (स्वाश्रित) निश्चयधर्मकी प्रमुखता